Book Title: Prakrit Sahitya Ka Itihas
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 753
________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास जिते मदिरा का थोड़ा-सा नशा चढ़ा हुआ है और जो क्षण भर के लिए, अपराधों को भूल कर उल्लास कर रही हैं, लज्जा को स्मरण करती हुई ऐसी प्रिया को उसका प्रियतम हँस कर बैठा रहा है। थोओ सरंतरोसं थोअत्थोअपरिवड्ढमाणपहरिसम् । होइ अ दूरपआसं उअहरसाअंतविभमं तीअ मुखम् ॥ (स० के०५, ४९१) धीरे-धीरे जिसका रोष दूर हो रहा है और जिस पर धीरे-धीरे हर्ष के चिह्न दिखाई दे रहे हैं ऐसा दूर से प्रकाशित और उभय रस के हाव-भाव से युक्त उस (नायिका ) का मुख दिखाई दे रहा है । ( स्वभावोक्ति का उदाहरण) , दइअस्स गिम्मवम्महसंदावं दो वि क्षत्ति अवणेइ। मजणजलद्दचंदणसिसिरा आलिंगणेण बहू ॥(भंगार० ५५, १३) खान के जल से आर्द्र और चन्दन से शिशिर वधू अपने आलिंगन से दयिता के ग्रीष्म और काम संताप दोनों को झट से दूर कर देती है। दटुं चिरंण लद्धो मामि ! पिओ दिहिगोअरगओ वि। दंडाहअवलिअभुअंगवक्करच्छे हअग्गामे ॥ (शृंगार ४१, २०३) हे मामी ! दंड से आहत, घूमे हुए, और भुजंग के समान टेढ़े-मेढ़े रास्ते वाले इस अभागे गाँव में दृष्टिगोचर होते हुए भी उस अपने प्रिय को बहुत देर तक मैं न देख सकी। दह्रोह हो! असिलअघाओ दे.वि मउलावइ लोअणभउहो बे। सुपओहरकुवलयपत्तलच्छि कह मोहण जणइ ण लग्गवच्छि॥ (स० के०५, ४९८) हे अधरामृत के पान करने वाले ! तेरा नखाघात ( उसके) दोनों लोचनों को मुकुलित कर देता है, फिर वह सुंदर स्तनों वाली और कमल के समान नयनों वाली वक्षस्थल से लगी हुई किसके हृदय में मोह उत्पन्न नहीं करती ? (दीर रस सूचक अर्थ : ओठों को डस कर तुम्हारे खङ्ग का प्रहार किये जाने पर उसके दोनों नेत्र मुकुलित हो जाते हैं, फिर वक्षस्थल से लग्न समस्त पृथ्वी मंडल को प्राप्त लक्ष्मी योद्धाओं के हृदय में क्यों मोह उत्पन्न नहीं करती ?) (श्लेप का उदाहरण ) दढमूढबद्धगंठिं व मोइआ कहवि तेण मे बाहू। अझे विअ तस्स उरे खत्तव्व समुरक्खआ थणआ॥ (भंगार० ७, २८) दृढ़ बंधी हुई गाँठ की भाँति उसने किसी तरह मेरी दोनों बाहुओं को छुड़ाया, फिर तो हमने भी गड्ढे की भाँति उसके वक्षस्थल पर अपने स्तन गड़ा दिये। दरवेविरोरुजुअलासु मउलिअच्छीसु लुलिअचिउरासु । पुरुसाइअसीरीसु कामो पिासु सजाउहो वसइ ॥ (स० के०५, २२२, गा० स०७. १५) जिसके उरुयुगल कुछ कंपित हो रहे हैं, जिसके नेत्र मुकुलित हैं, केशपाश YN

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