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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७४३ तत्तो चिअ गेन्ति कहा विअसन्ति तहिं समप्पन्ति । किं मपणे माउच्छा ! एकजुआणो इमो गामो ॥
(स० ० ५, २२७; गा० स० ७, ४८) उसी से कहानियाँ आरंभ होती हैं, उसी से बढ़ती हैं और वहीं पर समाप्त हो जाती है। हे मौसी ! क्या कहूँ, इस गाँव में केवल वही एक छैलछबीला रहता है।
तरलच्छि ! चंदवअणे ! पीणत्थणि ! करिकरोरु ! तणुमज्झे! दीहा वि समप्पइ सिसिरजामिणी कह णु दे माणे ॥
(शृंगार०,५९, ३३) हे चंचल नेत्रों वाली ! चन्द्रवदने ! पीन स्तनवाली ! हाथी के शुंडादंड के समान उरुवाली ! कृशोदरि ! शिशिर ऋतु की सारी रात बीत गई, और तेरा मान अभी भी पूरा नहीं हुआ !
तह वलिअंणअणजुअं गहवइधूआए रंगमझमि । जह ते वि णडा णडपेच्छआ वि मुहपेच्छआ जाआ॥
(शृंगार० २९, १३५) जैसे नट और नटों के प्रेक्षक उसके मुख की ओर देखने लगे, वैसे ही रंगस्थली में उस गृहपति की पतोहू के नेत्रयुगल घूम गये।
तह झत्ति से पअत्ता सव्वंगं विब्भमा थणुब्भेए । संसइअबालभावा होइ चिरं जह सहीणं पि ॥
(दशरूपक २, पृ० १२०) जैसे-जैसे उसके स्तनों में वृद्धि होने लगी वैसे-वैसे उसके समस्त अंगों में विलास दिखाई देने लगा, यहाँ तक कि उसकी सखियाँ भी एकबारगी उसके बाल्यभाव के बारे में संदेह करने लग गई। (हेला का उदाहरण)
तह दिदं तह भणि ताए णिअदं तहा तहासीणम् । अवलोइअं सअण्हं सविब्भमं जह सवत्तीहिं ॥
(दशरूपक, प्र० २, पृ० १२४) उस नायिका का देखना, बोलना, स्थित होना और बैठना इस ढंग का है कि उसको सौतें भी उसे तृष्णा और विलासपूर्वक देखती हैं । (भाव का उदाहरण)
तह सा जाणइ पावा लोए पच्छण्णमविणअं काउं। जह पढमं चिअ स चिअ लिक्खइ मज्झे चरितवंतीणं ॥
(स०के०५,३९४) जैसे वह पहले चरितवंतियों के बीच प्रधान गिनी जाती थी, वैसे ही अब वह कुलटा लोक में प्रच्छन्न अविनय करने वालों में सर्वप्रथम है ।
(स्वैरिणी का उदाहरण) ता कुणह कालहरणं तुवरंतम्मि विवरे विवाहस्स। जाव पण्डुणहवणाई होन्ति कुमारीअ अंगाइम् ॥
(स० के० ५,३११)