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७१८ प्राकृत साहित्य का इतिहास
एमेअ जणो तिस्सा देइ कचोलोवमाइ ससिबिम्बम् । परमत्थविआरे उण चन्दो चन्दो चिय वराओ॥
(काव्यानु पृ० २१६, ३४२, ध्वन्या० उ०३, पृ० २३२) उस सुन्दरी के कपोलों की उपमा लोग व्यर्थ ही चन्द्रमा से देते हैं, वास्तव में देखा जाय तो चन्द्रमा विचारा चन्द्रमा है ( उसके साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती)।
एसा कुडिलघणेण चिउरकडप्पेण तुह णिबद्धा वेणी । मह सहि ! दारइ दंसह आअसजडिब्ध कालउरइव्व हिअ ।
(साहित्य पृ० १७७) हे मेरी सखि ! कुटिल और घने केशकलाप से वद्ध तुम्हारी यह वेगी लोहे की यष्टि की भाँति हृदय में घाव करती है और कालसर्पिणी की भाँति डस लेती है।
एसो ससहरविम्बो दीसइ हेअंगवीणपिंडो ब्व ।
एदे अअस्स मोहा पडंति आसासु दुद्धधार व ॥(साहित्य पृ०५६०) यह चन्द्रमा का प्रतिविम्ब घृतपिण्ड की भाँति मालूम होता है और इसका दूध की धार के समान किरणें चारों दिशाओं में फैल रही हैं।
एहिइ पिओ ति णिमिसं व जग्गिअंजामिणीअ पढमद्धं ।
सेसं संतावपरब्बसाए परिसं व वोलीणं ॥ (स० के० ५, ४०१) प्रियतम आयेगा, यह सोचकर रात के पहले पहर में एक क्षण भर के लिये मैं जाग गई, उसके बाद बाकी रात संताप की दशा में एक वर्ष के समान बीती।
एहिइ सो वि पउत्थो अहरं कुप्पेज सो वि अणुणेज्ज । इअ कस्स वि फलइ मणोरहाणं माला पिअअमम्मि ।
(स.कं०५,२४९; गा०स०१,१७) प्रवास पर गया हुआ प्रियतम वापिस लौटेगा, मैं कोप करके बैठ जाऊंगी, फिर वह मेरी मनुहार करेगा-मनोरथों की यह अभिलाषा किसी भाग्यशालिनी की ही पूरी होती है।
ओण्णिहं दोव्वलं चिंता अलसंतणं सणीससिअम् । मह मंदभाइणीए के सहि ! तुहवि अहह परिभवइ ।।
(काव्य० प्र० ३, १४ रसगंगा १, पृ०१६) हे सखि ! कितने दुःख की बात है कि मुझ अभागी के कारण तुझे भी अब नींद नहीं आती, तू दुर्बल हो गई है, चिन्ता से व्याकुल है, थकावट का अनुभव करने लगी है और लम्बी साँसों से कष्ट पा रही है। (यहाँ दती नायिका के प्रेमी के साथ रति-सुख का उपभोग करने लगी है, उसी की व्यंजना है)।
(आर्थी व्यंजना का उदाहरण) ओरत्तपंकअमुहिं वम्महणडिअं व सलिलसअणणिसण्णम् । अल्लिअइ तीरणलिणिं वाआइ गमेइ सहचरिं चक्काओ ॥
(स० कं०५,३५७,