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७२२ प्राकृत साहित्य का इतिहास
करिणीवेहव्वअरो मह पुत्तो एक्ककाण्डविणिवाई। हअसोह्वाए तह कहो जह कण्डकरण्डअं वहइ ॥
(ध्वन्यालोक ३, ४ पृ० ६०५) केवल एक बाण से हथिनियों को विधवा बना देने वाले मेरे पुत्र को उस अभागिनी पुत्रवधु ने ऐसा कमजोर बना दिया है कि अब वह केवल वाणों का तरकस लिये घूमता है।
करिमरि ! अआलगजिरजलदासणिपउणपडिरओ एसो। पइणो धणुरवकंखिणि रोमञ्चं किं मुहा वहसि ॥
(स० के० ५, २५; गा० स० १, ५७) हे बंदिनी ! अकाल में गरजने वाले मेघ से वज्र के गिरने की यह आवाज़ है। अपने पति के धनुष की टंकार सुनने की इच्छा रखने वाली तू वृथा ही क्यों पुलकित होती है
कलहोओजलगोरं कलहोअसिआसु सरअराईसु । चुंबति विअसिअंच्छ विअद्धजुवईमुहं घण्णा ॥
(भंगार ५६, १५) चांदी के समान स्वच्छ शरदकाल की रात्रियों में उज्ज्वल, गौरवर्ण और विकसित नयन वाली ऐसी विदग्ध युवतियों के मुख का जो चुंबन करते हैं वे धन्य हैं।
कल्लं किर खरहिअओ पवसिहिइ पिओत्ति सुब्वइ जणम्मि । तह वड्ढ भअवइ णिसे ! जह से कल्लं चिअ ण होइ॥
(भंगार २०, ८९) कल वह निर्दय प्रियतम प्रवास पर जायेगा, ऐसा सुना जाता है। हे भगवति रात्रि ! तू बढ़ जा जिससे कल कभी हो ही नहीं।
कस्स करो बहुपुण्णफलेक्कतरुणो तुहं विसम्मिहिइ। थणपरिणाहे मम्महणिहाणकलसे व्व पारोहो॥
(स०० ५, ३८५; गा० स० ६, ७५) बहुपूर्ण फल वाले वृक्ष के नवपल्लव की भाँति न जाने किसका हाथ (हे कुमारी !) कामदेव के निधि-कलश रूपी तुम्हारे विस्तृत स्तनों पर विश्राम को प्राप्त होगा?
कस्स वि न होइ रोसो दठूण पिआए सव्वणं अहरं।
सभमरपउमग्याइणि! वारिअवामे ! सहसु इण्डिं ॥ (ध्वन्या० उ०१, पृ० २३, काव्या०, पृ० ५७, २५, साहित्य०, पृ० ३०२)
हे सखि ! अपनी प्रिया के ओष्ठ को क्षत देखकर किसे रोप नहीं होता ? इस लिए भौंरे समेत फूल को सूंघने वाली और मना करने पर भी न मानने वाली! अब तू अपनी करतूत का फल भोग । (अपहृति और व्याजोक्ति अलंकार का उदाहरण )