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प्राकृत साहित्य का इतिहास
। अह सो विलक्खहिअओ मए अहव्वाइ अगणिअप्पणओ। परवजणचिरीहिं तुम्हेहि उवेक्खिओ जंतो ॥
(स०कं ५, ३९९; गा० स०५,२०) हे सखियो ! उसके प्रणय की परवा न कर मुझ अभागिनी ने उसे लज्जित कर दिया और परपुरुष को वाद्यपूर्वक नचाते हुए तुम लोगों ने बाहर जाते समय उसकी उपेक्षा की।
अहिणवपओअरसिएसु सोहइ सामाइएस दिअहेस। रहसपसारिअगीआणं णच्चिों मोरविन्दाणं ॥
(साहित्य पृ०८४९, ध्वन्या उ०३, पृ०५७४, गा० स०६,५९) अभिनव मेघों की गर्जना से युक्त रात्रि की भाँति दिखाई देने वाले दिनों में मेघ को देखने के लिए) शीघ्रता से अपनी गर्दन उठाने वाले मोरों का नाच कितना सुन्दर लगता है ! (उपमा और रूपक का उदाहरण)
अहिणवमणहरविरइअवलयविहसा विहाइ णववहुआ। कुंदलयब्व समुप्फुल्लगुच्छपरिलिंतभमरगणा ॥
(काव्यानु० पृ० २०७, २२५, स० के० १,३७) अभिनव सुन्दर कंकणों के आभूषणों से नववधू शोभित हो रही है, मानों फूलों के गुच्छों पर मड़राते हुए भौरों से वेष्टित कुंदपुष्प की लता हो।
(अधिक उपमा का उदाहरण) आअम्बलोअणाणं ओलंसुअपाअडोरुजहणाणं। अवरण्हमज्जिरीणं कए ण कामो धणुं वहइ ।
(स० के० ५, १३५; गा० स०५, ७३) (सद्यः स्नान करने से ) जिसके नेत्र ललौहें हो गये हैं, और गीले वस्त्र होने से जिसके उरु और जघन दिखाई पड़ रहे हैं, अपराह्न काल में खात ऐसी नायिका के लिए कामदेव को धनुष धारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती (ऐसी नायिका तो स्वयं ही कामीजनों के मन में क्षोभ उत्पन्न कर देती है)।
आअरपणमिओट्ट अघडिअणासं असंघडिअणिलाडम् । वण्णग्घअलिप्पमुहीम तीअ परिउम्बणं मरिमो॥
(स० कं ५, २१२; गा० स० १, २२) हल्दीमिश्रित घी से लिप्त मुँहवाली (रजस्वला स्त्री ने) अपनी नासिका और ललाट के स्पर्श को बचाते हुए. बड़े आदर से अपने अधरोष्ठ को झुकाकर जो चुंबन दिया वह हमें आज भी याद है।
आउज्झिम पिट्टिअए जह कुक्कुलि णाम मज्झ भत्ताले। पेक्खन्तह लाउलकण्णिआहे हा कस्स कन्देमि ॥.
(स० कं० १, ३१) कुकर की भाँति मेरे भर्ता को डाँट-फटकार कर पीटा गया । हे राजकुल के कर्मचारियो ! देखो, अब मैं किसके आगे रोऊँ?