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६२० प्राकृत साहित्य का इतिहास
शौरसेनी में विदूषक की उक्ति पढ़िये
भो दिठं। एदस्स मिअआसीलस्स रणो वअस्सभावण णिविण्णो ह्मि । अअं मिओ अ वराहो अअं सद्लो त्ति मज्झणे वि गिह्मविरलपाअवच्छाआसु वणराईसु आहिण्डीअदि अडवीदो अडवीम् । पत्तसंकरकसाआई कदुण्हाइं गिरिणईजलाई पीअंति। अणिअदेवलं सुल्लमंसभूइट्ठो आहारो अण्हीअदि । तुरगाणुधावणकडिदसंधिणो रत्तिम्मि वि णिकामं सइदव्वं णत्थि । तदो महन्ते एव पञ्चूसे दासीए पुत्तेहिं सअणिलुद्धएहिं वणग्गहणकोलाहलेण पडिबोधिदो मि। एदावन्तेण वि दाव पीडा ण णिक्कमदि। तदो गंडस्स उवरि पिंडओ संवुत्तो। हिओ किल अह्मेसु ओहीणेसु तत्तहोदो मिआणुसारेण अस्समपदं पविट्ठस्स तावसकण्णआ सउन्दला मम अधण्णदाए दंसिदा संपदं णअरगमणस्स कहं वि ण करेदि । अज वि से तं एव्वं चिंतअंतस्स अक्खीसु पहादं आसि | का गदि ? (अभिज्ञानशाकुन्तल, द्वितीय अङ्क)।
-हाय रे दुर्भाग्य ? इस मृगयाशील राजा के वयस्यभाव से मुझे वैराग्य हो आया | यह मृग है, यह सूअर है, यह शार्दूल है, इस प्रकार ग्रीष्मकाल के मध्याह्न में भी विरल छायावाले वृक्षों की वनपंक्तियों में एक अटवी से दूसरी अटवी में भटकना होता है। पत्तों के मिश्रण से कसैले और किञ्चित् उष्ण गिरि की नदियों का जल पीना पड़ता है। अनियत समय सींक पर भुना हुआ मांस खाना पड़ता है। घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ने के कारण मेरी संधियों में दर्द होने लगा है जिससे रात्रि के समय में आराम से सो भी नहीं सकता। फिर बहुत सबेरे दासीपुत्र और कुत्तों से घिरे हुए बहेलियों द्वारा वन के कोलाहल से मैं जगा दिया जाता हूँ। और इतने से ही मेरा कष्ट दूर नहीं होता। फोड़े के ऊपर एक और फुड़िया निकल आई। कल हमें पीछे छोड़कर मृग का पीछा करते-करते महाराज एक आश्रम में जा पहुँचे और मेरे दुर्भाग्य से शकुन्तला नाम की तापसकन्या पर