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६६० माकृत साहित्य का इतिहास माधविका, शकुन्तिका आदि अनेक रचनाओं का उल्लेख है। ग्रन्थकर्ताओं के नामों में शाकन्य, बागुरि, विकटनिनंबा आदि नाम मुख्य हैं । इन उल्लेखों से इस ग्रन्थ की महत्ता का सहान ही अनुमान किया जा सकता है। शुमार रस-प्रधान प्राकृन पद्यों का यहाँ विशेषरूप से उल्लेख किया गया है। भोजराज ने श्रृंगार रस को सब रसों में प्रधान स्वीकार किया है । इन के सरस्वतीकंठाभरण' में ३३१ प्राकृत पद्य हैं, जिनमें अधिकांश गाथा. सप्तशती और रावणवहो में से लिये गये है। कुछ कालिदास, श्रीहर्ष, राजशेखर आदि से लिये गये हैं, कुछ अज्ञातकर्तृक हैं।
किसी पथिक के प्रति नायिका की उक्ति है कत्तो लंभइ पत्थिअ ! सत्थरअ एन्थ गामणिघरम्मि। उण्णपओहरे पेक्खिअ उण जइ वससि ता बससु॥
(परिच्छेद ?) -हे पथिक ! यहाँ ग्रामणी के घर में तुझे विस्तरा कहाँ से मिलेगा ? उन्नत पयोधर देखकर यदि तू यहाँ ठहरना चाहता है तो ठहर जा।
एक दूसरा सुभापित देखियेण उणवर कोअण्डदण्डए पुत्ति ! माणुसे वि एमेअ । गुणवजिऐण जाअइ वंसुप्पण्णे वि टंकारो।। ( परिच्छेद ३)
-हे पुत्रि! धनुप के दण्ड में ही यह बात नहीं बल्कि मनुष्य के संबन्ध में भी यही बात है कि सुवंश ( बाँस और अच्छा वंश) में उत्पन्न होने पर भी गुण ( रस्ती और गुण) रहित होने पर उसमें टंकार नहीं होती।
१. इसके प्रथम, द्वितीय, और तृतीय परिच्छेद पर रत्नेश्वर का व्याख्या है, चतुर्थ और पंचम परिच्छेद पर जीवानन्द विद्यासागर भट्टाचार्य ने व्याख्या लिखी है । कलकत्ता से ईवनी सन् १८९४ में प्रकाशित । रत्नसिंह (१-३) और जगदर (४) की टीकासहित पण्डित केदारनाथ शर्मा द्वारा सम्पादित, बम्बई १९३४ में प्रकाशित ।