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उपसंहार
६८९ प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था जिससे प्राकृत कथा-साहित्य को काफी बल मिला | इस समय केवल आगम अथवा उन पर लिखी हुई व्याख्याओं के आधार से ही कथा-साहित्य का निमणि नहीं हुआ, बल्कि अनेक अभिनव कथा-कहानियों की भी रचना की गई । अनेक कथाकोषों का संग्रह किया गया जिनमें चुनी हुई कथाओं को स्थान मिला | इस प्रकार प्राकृत कथा-साहित्य में तत्कालीन सामाजिक जीवन का विविध और विस्तृत चित्रण किया गया जो विशेषकर संस्कृत साहित्य में दुर्लभ है। प्राचीन भारत के सांस्कृतिक अध्ययन के लिये इस साहित्य का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी है । इसके सिवाय भिन्न-भिन्न देशों में प्रचलित देशी शब्दों का यहाँ प्रचुर मात्रा में स्वच्छंद रूप से प्रयोग हुआ। ये शब्द भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं। ___कथानक और आख्यानों की भाँति तीर्थंकर आदि महापुरुषों के जीवनचरित भी प्राकृत में लिखे गये। राम और कृष्णचरित के अतिरिक्त यहाँ विशिष्ट यति-मुनि, सती-साध्वी, सेठ-साहुकार, मंत्री सार्थवाह आदि के शिक्षाप्रद चरित लिखे गये। इन चरितों में बीच-बीच में धार्मिक और लौकिक सरस कथाओं का समावेश किया गया।
संस्कृत की शैली के अनुकरण पर यद्यपि प्राकृत के कथाग्रंथों में जहाँ-तहाँ अलंकारप्रधान समासांत पदावलि में नगर, वन, अटवी, ऋतु, वसंत, जलक्रीड़ा आदि के वर्णन देखने में आते हैं, फिर भी कथा-साहित्य में संस्कृत-साहित्य जैसी प्रौढ़ता न आ सकी । प्राकृत काव्य-साहित्य के निर्माण से यह क्षति बहुत कुछ अंश में पूरी हुई। इस काल में संस्कृत महाकाव्यों की शैली पर शृंगाररस-प्रधान प्राकृत काव्यों की रचना हुई, और इन काव्यों की रचना प्रायः जैनेतर विद्वानों द्वारा की गई। गाथासप्तशती श्रृंगाररस-प्रधान प्राकृत का एक अनुपम मुक्तक काव्य है जिसकी तुलना संस्कृत के किसी भी सर्वश्रेष्ठ काव्य से की
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