________________
परिशिष्ट-२ अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची [गा० स०-गाथासप्तशती (बंबई, १९३३), सेतु सेतुबन्ध (बंबई, १९३५), काव्या काव्यादर्श, काव्यालं = काव्यालंकार (बिंबई, १९०९), ध्वन्या० =ध्वन्यालोक (बनारस, १९५३), दश दशरूपक.(बनारस, १९५५), स० के० =सरस्वतीकंठाभरण (बंबई, १९३४), अलंकार = अलंकारसर्वस्व (बंबई, १८९३), का०प्र० = काव्यप्रकाश (बनारस, १९५५), काव्यानु० = काव्यानुशासन (बंबई, १९३८), साहित्य साहित्यदर्पण (बनारस, १९५५), रसरसगंगाधर (वंबई, १८८८), शृङ्गार० = शृङ्गारप्रकाश (मद्रास, १९२६; मैसूर १९५५; इस ग्रन्थ के समस्त पद्य उद्धृत नहीं हैं ]
अइकोवणा वि सासू रुआविआ गवईअ सोण्हाए। पाअपडणोण्णआए दोसु विगलिएसु बलएसु॥
(गा० स०५,९३, स० के०५, ३३९) प्रोषितभर्तृका (जिस स्त्री का पति परदेश गया है) पुत्रवधू जब अपनी सास के पादबंदन के लिए गई तो उसके हाथ के दोनों कंकण निकल कर गिर पड़े, यह देखकर बहुत गुस्सेवाली सास भी रो पड़ी।
अह दिअर ! किंण पेच्छसि आआसं किं मुहा पलोएसि । जाआइ बाहुमूलंमि अछुअन्दाण पारिवाडिम् ॥
(गा०स०६७०%, काव्या० पृ०३६८,५६८) (भाभी अपने देवर से परिहास करती हुई कह रही है) हे देवर ! आकाश की ओर व्यर्थ ही क्या ताक रहे हो? क्या अपनी प्रिया के वक्षःस्थल पर बने हुए नखक्षतों को नहीं देखते ? ( अतिशयोक्ति अलंकार )
अइ दुम्मणा! अज किणो पुच्छामि तुमं । जेण जिविजइ जेण विलासो पलिहिज्जा कीस जणो ।
(सं०के०२,३९५) हे दुर्मनस्क ! आज मैं तुमसे पूछती हूँ कि जिसके कारण जीते हैं और जिससे आमोद-प्रमोद करते हैं, उस जन का क्यों परिहास किया जाता है ?
(रास का उदाहरण) अइपिहुलं जलकुम्भं घेत्तूण समागदहि सहि ! तुरिजम् ।
समसेअसलिलणीसासणीसहा वीसमामि खणम् ॥ (का०प्र०३,१३) हे सखि! मैं बहुत बड़ा जल का घड़ा लेकर जल्दी-जल्दी आई है इससे श्रम के कारण पसीना बहने लगा है और मेरी साँस चलने लगी है जिसे मैं सहन नहीं