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प्राकृत साहित्य का इतिहास
आ सकती है। ध्वनि और अलंकार - प्रधान इस काव्य में तत्कालीन प्राकृत के सर्वश्रेष्ठ कवियों और कवयित्रियों की रचनायें संग्रहीत
जिससे पता लगता है कि ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी के पूर्व ही प्राकृत काव्य- कला प्रौढ़ता को प्राप्त कर चुकी थी । उपमाओं और रूपक की नवीनता इस काव्यकला की विशेषता थी । आनन्दवर्धन, धनंजय, भोज, मम्मट और विश्वनाथ आदि विद्वानों ने अपने अलंकार ग्रंथों में जो अलंकार और रस आदि के उदाहरणस्वरूप प्राकृत की अनेकानेक गाथायें उद्धृत की हैं उससे प्राकृत काव्य की समृद्धता का पता चलता है। इन गाथाओं में अधिकांश गाथायें गाथासप्तशती और सेतुबन्ध में से ली गई हैं। मुक्तक काव्य के अतिरिक्त महाकाव्य (सेतुबन्ध), प्रबन्धकाव्य ( गउडवहो ) और प्रेमकाव्य ( लीलावई ) की रचना भी प्राकृत साहित्य में हुई। अंत में केरल निवासी
पाणिवाद ( ईसवी सन् की १८वीं शताब्दी) ने कंसवहो और उसाणिरुद्ध जैसे खंडकाव्यों की रचना कर प्राकृत काव्य-साहित्य को समृद्ध किया ।
संस्कृत के नाटकों में भी प्राकृत को यथोचित स्थान मिला । यहाँ मनोरञ्जन के लिये भिन्न-भिन्न पात्रों से मागधी, पैशाची, शौरसेनी और महाराष्ट्री बोलियों में भाषण कराये गये । मृच्छकटिक में अवन्ती, प्राच्या, शकारी, चांडाली आदि का भी समावेश किया गया । क्रमशः प्राकृत की लोकप्रियता में वृद्धि हुई और इसे सट्टकों में स्थान मिला। शृंगाररसप्रधान प्राकृत के इन सट्टों में किसी नायिका के प्रेमाख्यान का चित्रण किया गया और सट्टक का नाम भी नायिका के ऊपर ही रक्खा गया । प्राकृत भाषा की कोमल पदावलि के कारण ही राजशेखर अपनी कर्पूरमंजरी की रचना इस भाषा में करने के लिये प्रेरित हुए ।
तत्पश्चात् प्राकृत भाषा को सुव्यवस्थित रूप देने के लिये प्राकृत के व्याकरण लिखे गये । प्राकृत भाषा इस समय बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी, इसलिये प्राकृत के उपलब्ध साहित्य