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सरस्वतीकंठाभरण
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है, यह कारिकाओं में लिखा गया है। इसके ऊपर धनंजय के लघु भ्राता धनिक ने अवलोक नाम की वृत्ति लिखी है । दशरूपक' में प्राकृत के २६ पद्य उद्धृत हैं । कुछ पद्य गाथासप्तशती, रत्नावलि और कर्पूरमंजरी से लिये हैं, कुछ स्वतंत्र हैं । धनिक के बनाये हुए पद्य भी यहाँ मिलते हैं । लज्जावती भार्या की प्रशंसा सुनिये -
लज्जापज्जत्तपसाहणाई परतित्तिणिप्पिवासाइं । अविणअदुम्मेहाई घण्णाण घरे कलत्ताइं ।। ( २.१५ ) -लज्जा जिसका यथेष्ट प्रसाधन है, पर-पुरुषों में निस्पृह और अविनय से अनभिज्ञ ऐसी कलत्र किसी भाग्यवान् के ही घर होती है ।
वृत्तिकार धनिक द्वारा रचित एक पद्य देखिये
तं चि वअणं ते चचेअ लोअणे जोव्वणं पि तं चचेअ । अण्णा अणंगलच्छी अण्णं चिअ किंपि साहेइ ॥ २.३३ ) वही वचन है, वही नेत्रों में मदमाता यौवन है, लेकिन कामदेव की शोभा कुछ निराली है और वह कुछ और ही बता रही है !
सरस्वतीकंठाभरण
भोजराज ( ईसवी सन् ६६६ - १०५१ ) मालव देश की धारा नगरी के निवासी थे | उन्होंने रामायणचम्पू, शृङ्गारप्रकाश आदि की रचना की है । शृंगारप्रकाश और सरस्वतीकंठाभरण उनके अलंकारशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । शृंगारप्रकाश में कुल मिलाकर ३६ प्रकाश हैं, जिनमें से २६वाँ प्रकाश लुप्त हो गया है । इस ग्रन्थ में अनंगवती, इन्दुलेखा, चारुमती, बृहत्कथा, मलयवती,
१. वासुदेव लक्ष्मणशास्त्री पणसीकर द्वारा सम्पादित, निर्णयसागर प्रेस, बंबई से सन् १९९८ में प्रकाशित ।
२. प्रथम भाग के १-८ प्रकाश जी० आर० जोसयेर द्वारा संपादित, सन् १९५५ में मैसूर से प्रकाशित; प्रथम भाग के २२ - २४ प्रकाश सन् १९२६ में मद्रास से प्रकाशित ।