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जोणिपाहुड
६७३ प्रकार, आभरण और अनेक प्रकार की रत-सुरत क्रीडाओं का वर्णन है। तेंतालीसवें अध्याय में यात्रा का विचार है। छियालीसवें अध्याय में गृहप्रवेशसम्बन्धी शुभाशुभ का विचार किया गया है। सैंतालीसवें अध्याय में राजाओं की सैनिक-यात्रा के फलाफल का विचार है। चौवनवें अध्याय में सार-असार वस्तुओं का कथन है। पचपनवें अध्याय में गड़ी हुई धनराशि का पता लगाने के सम्बन्ध में कथन है। अट्ठावनवें अध्याय में जैन धर्म सम्बन्धी जीव-अजीव का विस्तार से विवेचन है। अन्तिम अध्याय में पूर्वभव जानने की युक्ति बताई गई है।
जोणिपाहुड (योनिप्राभृत) जोणिपाहुड निमित्तशास्त्र का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ था। इसके कर्ता धरसेन आचार्य (ईसवी सन् की प्रथम और द्वितीय शताब्दी का मध्य) हैं। वे प्रज्ञाश्रमण कहलाते थे। वि० सं० १५५६ में लिखी हुई बृहट्टिपणिका नाम की ग्रंथसूची के अनुसार वीर निर्वाण के ६०० वर्ष पश्चात् धरसेन ने इस ग्रंथ की रचना की थी।' ग्रंथ को कूष्मांडिनी देवी से प्राप्त कर धरसेन ने पुष्पदंत और भूतबलि नामके अपने शिष्यों के लिये लिखा था। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी इस ग्रन्थ का उतना ही आदर था जितना दिगम्बर सम्प्रदाय में | धवलाटीका के अनुसार इसमें मन्त्र-तन्त्र की शक्ति का वर्णन है और इसके द्वारा पुद्गलानुभाग जाना जा सकता है। निशीथविशेषचूर्णी (४, पृष्ठ ३७५ साइक्लोस्टाइल प्रति) के कथनानुसार आचार्य सिद्धसेन ने जोणिपाहुड के आधार से अश्व
१. योनिप्राभृतं वीरात् ६०० धारसेनम् (बृहटिपणिका जैन साहित्य संशोधक, १,२ परिशिष्ट); पखंडागम की प्रस्तावना, पृष्ठ ३०, फुटनोट । इस सम्बन्ध में देखिये अनेकांत, वर्ष २, किरण ९ में पं० जुगलकिशोर मुख्तार का लेख । दुर्भाग्य से अनेकांत का यह अङ्क मुझे नहीं मिल सका।
२. जोणिपाहुडे भणिदमंसतंतसत्तीओ पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्यो । डाक्टर हीरालालजैन, पखंडागम की प्रस्तावना, पृ ३० ।
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