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उपसंहार मध्ययुगीन भारतीय-आर्यभाषाओं में पालि और प्राकृत दोनों का अन्तर्भाव होता है, लेकिन प्रस्तुत ग्रन्थ में केवल प्राकृत भाषाओं के साहित्य के इतिहास पर ही प्रकाश डाला गया है। ईसवी सन् के पूर्व ५वीं शताब्दी में मगध देश विशेषकर भगवान महावीर और बुद्ध की प्रवृत्तियों का केन्द्र रहा, अतएव जिस जनसाधारण की बोली में उन्होंने अपना लोकोपदेश दिया वह बोली सामान्यतया मागधी कहलाई। आगे चलकर यह भाषा केवल अपने में ही सीमित न रही और मगध के आसपास के प्रदेशों की भाषा के साथ मिल जाने से अर्धमागधी कही जाने लगी। मागधी अथवा अर्धमागधी की भाँति पैशाची भी मध्ययुगीन आर्यभाषाओं की एक प्राचीन बोली है जो भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में बोली जाती थी। पैशाची में गुणान्य ने बड्डकहा (बृहत्कथा) की रचना की थी, लेकिन दुर्भाग्य से यह रचना उपलब्ध नहीं है। पैशाची की भाँति शौरसेनी भी एक प्रादेशिक बोली थी जो शूरसेन (मथुरा के आसपास का प्रदेश) में बोली जाने के कारण शौरसेनी कहलाई। क्रमशः प्राकृत भाषाओं का रूप निखरता गया और हाल की सत्तसई, प्रवरसेन का सेतुबंध और वाक्पतिराज का गउडवहो आदि रचनाओं के रूप में इसका सुगठित साहित्य रूप हमारे सामने आया।
ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर ने मगध के आसपास बोली जानेवाली मिली-जुली अर्धमागधी भाषा में अपना प्रवचन दिया । संस्कृत की भाँति यह भापा केवल सुशिक्षितों की भापा नहीं थी, बल्कि बाल, वृद्ध, स्त्री और अनपढ़ सभी इसे समझ सकते थे। निस्सन्देह महावीर की यह बहुत बड़ी देन थी जिससे जनसाधारण के पास तक वे अपनी बात पहुँचा सके थे।