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द्रव्यपरीक्षा
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स्थानों में पाये जाते थे । रत्नों के परीक्षक को मांडलिक कहा जाता था, ये लोग रत्नों का परस्पर मिलान कर उनकी परीक्षा करते थे ।
द्रव्यपरीक्षा
यह ग्रंथ विक्रम संवत् १३७५ ( ईसवी सन् १३१८ ) में लिखा गया । इसमें १४६ गाथायें हैं। इनमें द्रव्यपरीक्षा के प्रसंग में चासणिय, सुवर्णरूपशोधन, मौल्य, सुवर्ण-रुप्यमुद्रा, खुरासानीमुद्रा, विक्रमार्कमुद्रा, गुर्जरीमुद्रा, मालवीमुद्रा, नलपुरमुद्रा, जालंधरीमुद्रा, दिल्लिका, महमूदसाही, चउकडीया, फरीदी, अलाउद्दीन, मोमिनी अलाई, मुलतानी, मुख्तलाफी और सीराजी आदि मुद्राओं का वर्णन है ।
धातूत्पत्ति
इसमें ५७ गाथायें हैं । इन गाथाओं में पीतल, ताँबा, सीसा, राँगा, काँसा, पारा हिंगुलक, सिन्दूर, कर्पूर, चंदन, मृगनाभि आदि का विवेचन है ।
वस्तुसार
इनके अतिरिक्त पूर्व शास्त्रों का अध्ययन कर संवत् १३७२ में ठक्कुर फेरू ने वास्तुसार ग्रन्थ की रचना की।' इसमें गृहवास्तुप्रकरण में भूमिपरीक्षा, भूमिसाधना, भूमिलक्षण, मासफल, नींव - निवेसलग्न, गृहप्रवेश लग्न, और सूर्यादि ग्रहाष्टक का १५८ गाथाओं में वर्णन है । इसकी ५४ गाथाओं में बिम्बपरीक्षा प्रकरण, और ६८ गाथाओं में प्रासादकरण का वर्णन किया गया है ।
शास्त्रीय विषयों पर प्राकृत में अन्य भी अनेक ग्रंथों की रचना हुई | उदाहरण के लिए सुमिणसित्तरि में ७० गाथाओं में इष्टअनिष्ट स्वप्नों का फल बताया है। जिनपाल ने स्वप्नविचार (सुविण विचार ) और विनयकुशल ने ज्योतष्चक्रविचार ( जोइस
१. चन्दनसागर ज्ञानभंडार वेजलपुर की ओर वि० सं० २००२ में प्रकाशित ।
२. ऋषभदेव केशरीमल संस्था, रतलाम द्वारा प्रकाशित सिरिपयरणसंदोह में संग्रहीत |