________________
६६१
अलंकारसर्वस्व कृपक वधुओं के स्वाभाविक सौन्दर्य पर दृष्टिपात कीजियेसालिवणगोविआए उड्डावन्तीअ पूसविन्दाइम् । सव्वंगसुन्दरीए वि पहिआ अच्छीइ पेच्छन्ति ॥ (परिच्छेद ३)
-पथिकगण शालिवन में छिपी हुई शुकों को उड़ाती हुई सर्वांगसुन्दरियों के नयनों को ही देखते हैं।
धीर पुरुषों की महत्ता का वर्णन पढ़ियेसच्चं गरुआ गिरिणो को भणइ जलासआ ण गंभीरा । धीरेहिं उवमाउं तहवि हु मह णास्थि उच्छाहो (परिच्छेद ४)
-यह सत्य है कि पर्वत महान होते हैं. और कौन कहता है कि तालाब गम्भीर नहीं होते ? फिर भी धीर पुरुषों के साथ उनकी उपमा देने के लिये उत्साह नहीं होता ।
कौन सच्चा प्रेमी है और कौन स्वामी है ? दूणन्ति जे मुहत्तं कुविआ दासव्विअ ते पसाअन्ति । ते चिअ महिलाणं पिआ सेसा सामिच्चिअ वराआ।। (परिच्छेद ५)
-जो अल्पकाल के लिये भी कुपित अपनी प्रिया को देखकर दुखी होते हैं और उन्हें दास की भाँति प्रसन्न करते हैं, वे ही सचमुच महिलाओं के प्रिय कहलाते हैं, बाकी तो वेचारे स्वामी हैं।
___ अलंकारसर्वस्व अलंकारसर्वस्व के कर्ता राजानक रुय्यक काश्मीर के राजा जयसिंह (ईसवी सन् ११२८-४६ ) के सांधिविग्रहिक महाकवि मंखुक के गुरु थे।' इस ग्रंथ में अलंकारों का बड़ा पांडित्यपूर्ण वर्णन किया गया है। जयरथ ने इस पर विमर्शिनी नाम की व्याख्या लिखी है । अलंकारसर्वस्व में प्राकृत के लगभग १० पद्यों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इस सूत्र पर मंखुक ने वृत्ति लिखी है।
१. टी० गणपति शास्त्री द्वारा सम्पादित, त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरीज़ में सन् १९१५ में प्रकाशित ।