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दसवाँ अध्याय प्राकृतव्याकरण छन्द-कोप तथा अलंकार-ग्रन्थों में प्राकृत ( ईसवी सन की छठी शताब्दी से लेकर १८ वीं शताब्दी तक)
(क) प्राकृत व्याकरण संस्कृत का उद्भव वेदपाठी पुरोहितों के यहाँ हुआ था जब कि वैदिक ऋचाओं को उनके मूल रूप में सुरक्षित रखने के लिये संस्कृत भाषा की शुद्धता पर जोर दिया गया। प्राकृत के सम्बन्ध में यह बात नहीं थी। वह बोलचाल की भाषा थी, इसलिये संस्कृत की भाँति इस पर नियन्त्रण रखना कठिन था। प्राकृत भाषा के व्याकरण-सम्बन्धी नियम संस्कृत की देखा-देखी अपेक्षाकृत बहुत बाद में बने, इसलिये पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि जैसे वैयाकरणों का यहाँ अभाव ही रहा । प्राकृत के वैयाकरणों में चण्ड (ईसवी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी), वररुचि ( ईसवी सन् की लगभग छठी शताब्दी) और हेमचन्द्र (ईसवी सन् ११००) मुख्य माने जाते हैं। इससे मालूम होता है कि प्राकृत भापा को व्याकरणसम्मत व्यवस्थित रूप काफी बाद में मिला | यह भी ध्यान रखने की बात है कि जैसा प्रश्रय संस्कृत को ब्राह्मण विद्वानों से मिला, वैसा प्राकृत को नहीं मिल सका। उल्टे, प्राकृत को म्लेच्छों की भापा उल्लिखित कर उसके पढ़ने और सुनने का निषेध ही किया गया ।' वस्तुनः शिक्षा और व्याकरण की सहायता से जो सुनिश्चित और मुगठित १. लोकायतम् कुतकम् च प्राकृतं म्लेच्छभाषितम् । श्रोतव्यं द्विजेतद् भधो भयति तद् द्विजम् ॥
(पलपुराण, पूर्व० ९८, १०)