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६४८ प्राकृत साहित्य का इतिहास वार्तिकार्णवभाज्य आदि की रचना की वे बहुत विस्तृन थे, अतएव उन्होंने संक्षेप रुचिवाले पाठकों के लिये मणिदीपिका लिखी है। श्रीनिवासगोपालाचार्य ने इस व्याकरण पर संस्कृत में टिप्पणी लिखी है।
प्राकृतानन्द प्राकृतानन्द के रचयिता पंडित रघुनाथ कवि ज्योतिविन् सरस के पुत्र थे । ये १८वीं शताब्दी में हुए हैं। इस ग्रन्थ में ४१६ सूत्र हैं। प्रथम परिच्छेद में शब्द और दूसर में धातुविचार किया गया है। जैसे सिंहराज ने त्रिविक्रम के सूत्रों को प्राकृतरूपावतार में सजाया है, वैसे ही रघुनाथ ने वररुचि के प्राकृतप्रकाश के सूत्रों को बड़े ढंग से प्राकृतानन्द में सजाया है ।
प्राकृत के अन्य व्याकरण इसके सिवाय जैन और अजैन विद्वानों ने और भी प्राकृत के अनेक व्याकरण लिखे। शुभचन्द्र ने हेमचन्द्र का अनुकरण करके शब्दचिंतामणि, श्रुतसागर ने औदार्यचिन्तामणि', समन्तभद्र ने प्राकृतव्याकरण और देवसुंदर ने प्राकृतयुक्ति की रचना की। धवला के टीकाकार वीरसेन ने भी किसी अज्ञातकर्तृक पद्यात्मक व्याकरण के सूत्रों का उल्लेख किया है। इस
१. यह ग्रंथ सिंघी जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहा है। मुनि जिनविजय जी की कृपा से इसकी सुद्रित प्रति मुझे देखने को मिली है।
२. देखिये ढाक्टर ए० एन० उपाध्ये का एनल्स ऑव भंडारकर ओरिएण्टल इंस्टिट्यूट ( जिल्द १३, पृ० ३७-३८) में 'शुभचन्द्र और उनका प्राकृत व्याकरण' नामक लेख ।
३. भट्टनाथस्वामिन् (पृ० २९-४४) द्वारा प्रकाशित, प्रकाशन का समय नहीं दिया है।
४. देखिये जैन ग्रन्थावलि (पृष्ठ ३०७) में हस्तलिखित ग्रंथों की सूची।