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पाइयलच्छीनाममाला
(ग) कोश
पाइयलच्छीनाममाला संस्कृत में जो स्थान, अमरकोश का है, वही स्थान प्राकृत में धनपाल की पाइयलच्छीनाममाला का है। धनपाल ने अपनी छोटी बहन सुन्दरी के लिये विक्रम संवत् १०२६ ( ईसवी सन् १७२ ) में धारानगरी में इस कोश की रचना की थी। प्राकृत का यह एकमात्र कोश है। व्यूलर के अनुसार इसमें देशी शब्द कुल एक चौथाई हैं, बाकी तत्सम और तद्भव है। इसमें २७६ गाथायें आर्या छंद में हैं जिनमें पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं। हेमचन्द्र के अभिधानचिन्तामणि में तथा शारंगधरपद्धति में धनपाल के पद्यों के उद्धरण मिलते हैं, इससे पता लगता है कि धनपाल ने और भी ग्रन्थों की रचना की होगी जो आजकल उपलब्ध नहीं हैं। ऋपभपंचाशिका में इन्होंने ऋपभनाथ भगवान् की स्तुति की है। इसके सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है।
हेमचन्द्रसूरि ने अपनी रयणावलि (रत्नावलि ) नामकी देसीनाममाला में धनपाल, देवराज, गोपाल, द्रोण, अभिमानचिह्न, पादलिप्ताचार्य और शीलांक नामक कोशकारों का उल्लेख किया है, अज्ञात कवियों के उद्धरण भी यहाँ दिये गये हैं। दुर्भाग्य से इन कोशकारों की रचनाओं का अभीतक पता नहीं चला।
(घ) अलंकारशास्त्र के ग्रन्थों में प्राकृत जैसे भाषा के अध्ययन के लिये व्याकरणशास्त्र की आवश्यकता होती है वैसे ही काव्य में निपुणता प्राप्त करने के लिये
१. गेोर्ग न्यूलर द्वारा संपादित होकर गोएटिंगन में सन् १८७९ में प्रकाशित । गुलाबचन्द लालुभाई द्वारा संवत् १९७३ में भावनगर से भी प्रकाशित । अभी हाल में पण्डित बेचरदास द्वारा संशोधित होकर बम्बई से प्रकाशित ।