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रंभामंजरी
५३५ अन्त माना जाता है। इन्होंने हम्मीर महाकाव्य तथा अन्य अनेक जैनग्रन्थों की रचना की है। एक उक्ति सुनिये
रासहवसहतुरंगा जूआरा पंडिया डिंभा।
न सहति इक्क इक इक्केण विणा ण चिट्ठति ।। -रासभ, वृषभ, तुरंग, द्यूतकार, पंडित और बालक ये एक दूसरे के बिना अकेले नहीं रह सकते । वसन्त के आगमन पर विरहिणियों की दशा देखिये
मयंको सप्पंको मलयपवणा देहतवणा । कहूसहो रद्दो कुसुमसरसरा जीविदहरा ॥ वराईयं राई उवजणइ णिहंपि ण खणं ।
कहं हा जीविस्से इह विरहिया दूरपहिया ।। -वसन्त के आगमन पर जिसका पति विदेश गया हुआ है ऐसी विरहिणी कैसे जीवित रहेगी ? उसे मृगांक सोक के समान प्रतीत होता है, मलय का शीतल पवन देह को संतप्त करता है, कोकिल की कुहू कुहू रौद्र मालूम होती है, कामदेव के बाण जीवन को अपहरण करने वाले जान पड़ते हैं, उस बिचारी को रात्रि के समय एक क्षण भी नींद नहीं आती।
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१. डा० पी० पीटर्सन और रामचन्द्र दीनानाथ शास्त्री द्वारा संपादित तथा निर्णयसागर प्रेस, यम्बई द्वारा सन् १८८९ में प्रकाशित ।