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प्राकृतलक्षण
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प्राकृतलक्षण प्राकृत का दूसरा व्याकरण चण्ड का प्राकृतलक्षण है जिसमें तीन अध्यायों में ६६ सूत्रों में प्राकृत का विवेचन है।' वीर भगवान् को नमस्कार कर वृद्धमत का अनुसरण कर चण्ड ने इस व्याकरण की रचना की है । अपभ्रंश, पैशाची और मागधी का यहाँ एक-एक सूत्र में उल्लेख कर उनकी सामान्य विशेषतायें बताई हैं। कुछ विद्वान् इस व्याकरण को प्राचीन कहते हैं, कुछ का मानना है कि अन्य ग्रंथों के आधार से इसकी रचना हुई है।
प्राकृतकामधेनु लंकेश्वर ने प्राकृतकामधेनु अथवा प्राकृतलंकेश्वररावण की रचना की है। ग्रंथ के मंगलाचरण से मालूम होता है कि लंकेश्वर के प्राकृतव्याकरण के ऊपर अन्य कोई विस्तृत ग्रन्थ था जिसे संक्षिप्त कर प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की गई है। यहाँ ३४ सूत्रों में प्राकृत के नियमों का विवेचन है। बहुत से सूत्र अस्पष्ट हैं। ११वें सूत्र में अ के स्थान में उ का प्रतिपादन कर (जैसे गृह = घर) अपभ्रंश की ओर इंगित किया है। अन्तिम सूत्र में योषित् के स्थान में महिला शब्द का प्रयोग स्वीकार किया है।
संक्षिप्तसार हेमचन्द्र के सिद्धहेम की भाँति क्रमदीश्वर ने भी संक्षिप्तसार नाम के एक संस्कृत-प्राकृत व्याकरण की रचना की है। इसके
१. भूमिका आदि सहित हार्नेल द्वारा सन् १८८० में कलकत्ता से प्रकाशित । सत्यविजय जैन ग्रंथमाला की ओर से अहमदाबाद से भी सन् १९२९ में प्रकाशित ।
२. डाक्टर मनोमोहनघोप द्वारा संपादित प्राकृतकल्पतरु के साथ परिशिष्ट नंबर २ में पृष्ठ १७०-१७३ पर प्रकाशित ।
३. सबसे पहले लास्सेन ने अपने इन्स्टीट्यूत्सीओनेस में इसके