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प्राकृतकल्पतरु
६४१ प्राकृतकल्पतरु प्राकृतकल्पतरु के कर्ता रामशर्मा तर्कवागीश भट्टाचार्य है जो बंगाल के रहने वाले थे। इनका समय ईसवी सन् की १७ वीं शताब्दी माना जाता है। रामशर्मा ने विषय के विवेचन में पुरुषोत्तम के प्राकृतानुशासन का ही अनुगमन किया है। इस पर लेखक की स्वोपज्ञ टीका है। इसमें तीन शाखायें हैं। पहली शाखा में दस स्तवक हैं जिनमें महाराष्ट्री के नियमों का प्रतिपादन है। दूसरी शाखा में तीन स्तवक हैं जिनमें शौरसेनी, प्राच्या, आवन्ती, बाह्नीकी, मागधी, अर्धमागधी और दाक्षिणात्या का विवेचन है। प्राच्या का विदूषक आदि द्वारा बोले जाने का यहाँ उल्लेख है। आवन्ती की सिद्धि शौरसेनी और प्राच्या के संमिश्रण से बताई गई है। आवन्ती और बाह्नीकी भापायें नगराधिप, द्वारपाल, धूर्त, मध्यम पात्र, दण्डधारी और व्यापारियों द्वारा बोली जाती थीं। मागधी राक्षस, भिक्षु और क्षपणक आदि द्वारा बोली जाती थी, तथा महाराष्ट्री और शौरसेनी इसका आधार था। दाक्षिणात्या के सम्बन्ध में कहा है कि पदों से मिश्रित, संस्कृत आदि भाषाओं से युक्त इसका काव्य अमृत से भी अधिक सरस होता है। विभापाओं में शाकारिक, चांडालिका, शाबरी,आभीरिका
और टक्की का विवेचन है। राजा के साले, मदोद्धत, चपल और अतिमूर्ख को शाकार कहा है। शाकार द्वारा बोली जानेवाली भाषा शाकारिका कही जाती है। इसको ग्राम्य, निरर्थक, क्रमविरुद्ध, न्याय-आगम आदि विहीन, उपमानरहित और पुनरुक्तियों सहित कहा गया है। इस विभाषा के पदों के दोपको गुण माना गया है। चाण्डाली शौरसेनी और मागधी का मिश्रण है ।
१. डाक्टर मनमोहनघोष द्वारा संपादित, एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता द्वारा १९५४ में प्रकाशित । इसी के साथ पुरुषोत्तम का प्राकृतानुशासन, लंकेश्वर का प्राकृतकामधेनु और विष्णुधर्मोत्तर का प्राकृतलक्षण भी प्रकाशित है।
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