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चंदलेहा थी। चन्दलेहा में चार यवनिकांतर है जिनमें मानवेद और चन्द्रलेखा के विवाह का वर्णन है | शृङ्गाररस की इसमें प्रधानता है। शैली ओजपूर्ण है। चन्दलेहा की शैली कपरमंजरी की शैली से बहुत कुछ मिलती है; कर्पूरमंजरी के ऊपर यह आधारित है। काव्य की दृष्टि से यह एक सुन्दर रचना है, यद्यपि शब्दालंकारों
और समासांत पदावलि के कारण इसमें कृत्रिमता आ गई है। पद्यों में प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन सुन्दर बन पड़े हैं। छन्दों की विविधता पाई जाती है। अन्य सट्टक रचनाओं की भांति इस पर भी संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट है। वररुचि के प्राकृतप्रकाश के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना की गई है, जिससे भाषा में कृत्रिमता का आ जाना स्वाभाविक है। सट्टक का यहाँ निम्नलिखित लक्षण बताया है
सो सट्टओ सहअरो किल णाडिआए ताए चउज्जवणिअंतर-बंधुरंगो । चित्तत्थत्थसुत्तिअरसो परमेक्कभासो
विक्खंभआदिरहिओ कहिओ बुहेहिं ।। -सट्टक नाटिका का सहचर होता है, उसमें चार यवनिकांतर होते हैं, विविध अर्थ और रस से वह युक्त होता है, उसमें एक ही भाषा बोली जाती है, और विष्कम आदि नहीं होते। नवचन्द्र का चित्रण देखिये
चन्दण-चच्चिअ-सव्व-दिसंतो चारु-चओर-सुहाइ कुणंतो। दीह-पसारिअ-दीहिइ-बुंदो
दीसइ दिण्ण-रसो णव-चन्दो ॥ (३. २१) -समस्त दिशाओं को चन्दन से चर्चित करता हुआ, सुन्दर चकोर पक्षियों को सुख प्रदान करता हुआ, अपनी किरणों के समूह को दूर तक प्रसारित करता हुआ सरस नूतन चन्द्रमा दिखाई दे रहा है।