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प्राकृत साहित्य का इतिहास
आनन्दसुन्दरी आनन्दसुन्दरी' के कर्ता घनश्याम का जन्म ईसवी सन् १७०० में महाराष्ट्र में हुआ था। २६. वर्ष की अवस्था में ये संजोर के तुकोजी प्रथम (सन् १७२६-३५) के मन्त्री रहे। घनश्याम महाराष्ट्रचूडामणि और सर्वभाषाकवि कहे जाते थे; सात-आठ उक्ति और लिपियों में निष्णात थे और कंठीरव के रूप में प्रसिद्ध थे। जैसे राजशेखर अपने आपको बाल्मीकि का तीसरा अवतार मानते थे, वैसे ही घनश्याम अपने को सरस्वती का अवतार समझते थे। इन्होंने ६४ संस्कृत, २० प्राकृत और २० भाषा के ग्रन्थों की रचना की है। ये ग्रन्थ नाटक, काव्य, चम्पू, व्याकरण, अलंकार और दर्शन आदि विपयों पर लिखे गये हैं। उन्होंने तीन सड़कों की रचना की थी-बैकुंठचरित, आनन्दसुन्दरी तथा एक अन्य । इनमें से केवल आनन्दसुन्दरी ही उपलब्ध है। आनन्दसुन्दरी की रचना में राजशेखर की कर्पूरमंजरी की छाया कम है, मौलिकता अपेक्षाकृत अधिक | घनश्याम के अनुसार सट्टक में गर्भनाटक न होने से वह अपहासभाजन होता है, इसलिए आनन्दसुन्दरी में गर्भनाटक का समावेश किया गया है। इसमें चार जवनिकांतर हैं। प्राकृत इस समय बोल-चाल की भापा नहीं रह गई थी, इसलिए लेखक प्राकृत व्याकरणों का अध्ययन करके साहित्य सर्जन किया करते थे। इसलिए पाणिवाद और रुद्रदास आदि लेखकों की भाँति घनश्याम की रचना में भी भाषा की कृत्रिमता ही अधिक दिखाई देती है। मराठी भाषा के बहुत से शब्द और धातुएँ यहाँ पाई जाती हैं। भट्टनाथ ने इस पर संस्कृत में व्याख्या लिखी है। आनन्दसुन्दरी को राजा को समर्पित करते समय धात्री की उक्ति देखिये
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1. डा० ए० एन० उपाध्ये द्वारा सम्पादित और मोतीलाल बनारसीदास, बनारस द्वारा १९५५ में प्रकाशित ।