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प्राकृत साहित्य का इतिहास श्रुतदेवी के ध्यान का महत्त्वखम्भइ कुबोहसेलो खणिजए मूलओ वि पाव-तरू । हम्मइ कली हणिज्जइ कम्मं सुअ-देवि-माणेण ॥
-श्रुतदेवी के ध्यान से कुबोध रूपी शैल विदीर्ण हो जाता है, पापरूपी वृक्ष की जड़ उन्मूलित हो जाती है, कलिकाल नष्ट हो जाता है और कर्मों का नाश हो जाता है। (यहाँ खम्भइ, खणिज्जइ, हम्मइ और हणिज्जइ रूपों के उदाहरण दिये हैं)। ___ सातवें सर्ग की ६३ वी गाथा तक प्राकृत भाषा के उदाहरण समाप्त हो जाते हैं। उसके बाद शौरसेनी के उदाहरण चलते हैं
तायध समग्ग-पुद्धि तायह सम्गं पि भोदु तुह भई । होदु जयस्सोत्तंसो तुइ कित्तीए अपुरवाए ॥
-हे नरेन्द्र ! तू समग्र पृथ्वी का पालन कर, स्वर्ग की रक्षा कर, तेरा कल्याण हो; तेरी अपूर्व कीर्ति से जगत् का उत्कर्प हो ।
आठवें सर्ग में श्रुतदेवी के उपदेश का वर्णन है। इसमें मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची और अपभ्रंश के उदाहरण प्रस्तुत हैं। मागधी का उदाहरण
पुजे निशाद-पच सुपञ्चले यदि-पघेण वजन्ते ।
शयल-यय-वश्चलत्तं गश्चन्ते लहदि पलमपदं । -पुण्यात्मा, कुशाग्र प्रज्ञावाला, सुप्राञ्जल, यतिमार्ग का अनुसरण करता हुआ, सकल जग की वत्सलता का आचरण करता हुआ परमपद को प्राप्त करता है। पैशाची का उदाहरणयति अरिह-परममंतो पढिय्यते कीरते न जीवबधो । यातिस-तातिस-जाती ततो जनो निव्वुतिं याति ।।
-यदि कोई अहंत के परम मन्त्र का पाठ करता है, जीववध नहीं करता, तो ऐसी-वैसी जाति का होता हुआ भी वह निर्वृति को प्राप्त होता है।