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कुमारवालचरिय छठे सर्ग में चन्द्रोदय का वर्णन है। कुमारपाल मण्डपिका में बैठते हैं, पुरोहित मन्त्रपाठ करता है, बाजे बजते हैं, वारवनितायें थाली में दीपक रखकर उपस्थित होती हैं । राजा के समक्ष श्रेष्ठी, सार्थवाह आदि महाजन आसन ग्रहण करते हैं, राजदूत कुछ दूरी पर बैठते हैं । तत्पश्चात् सांधिविहिक राजा के बल-वीर्य का यशोगान करता हुआ विज्ञप्तिपाठ करता है___ 'हे राजन् ! आपके योद्धाओं ने कोंकण देश में पहुंचकर मल्लिकार्जुन नामक कोंकणाधीश की सेना के साथ युद्ध किया
और इस युद्ध में मल्लिकार्जुन मारा गया। फिर आपने दक्षिण दिशा की दिग्विजय की, पश्चिम में सिन्धुदेश में आपकी आज्ञा शिरोधार्य की गई, यवनाधीश ने आपके भय से तांबूल का सेवन करना त्याग दिया, तथा वाराणसी, मगध, गौड, कान्यकुब्ज, चेदि, मथुरा और दिल्ली आदि नरेश आपके वशवर्ती हो गये ।' विज्ञप्ति सुनने के पश्चात् राजा कुमारपाल शयन करने चले
जाते हैं।
सातवें सर्ग में सोकर उठने के पश्चात् राजा परमार्थ की चिन्ता करता है । यहाँ जीव के संसारपरिभ्रमण, स्त्रीसंगत्याग, स्थूलभद्र, वर्षि, गौतमस्वामी, अभयकुमार आदि मुनिमहात्माओं की प्रशंसा, जिनवचन के हृदयंगम करने से मोक्ष की प्राप्ति, पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार, श्रुतदेवी की स्तुति आदि का वर्णन है । श्रुतदेवी राजा कुमारपाल को प्रत्यक्ष दर्शन देती है और राजा उससे उपदेश देने की प्रार्थना करता है । स्त्रियों के सम्बन्ध में उक्ति देखिये
मायाइ उद्धमाया अहिरेमिअ-तुच्छयाइ अंगुमिआ । चवलत्तं पूरिआओ को तुवरइ ठुमित्थीओ॥
-माया से पूर्ण, पूरी तुच्छता से भरी हुई और चपलता से पृरित स्त्रियों को देखने की कौन इच्छा करेगा ? (यहाँ पूर् धातु के उद्घमाया, अहिरेमिअ, अंगुमिआ और पूरिआओ नामक आदेशों के उदाहरण दिये गये हैं )।