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प्राकृत साहित्य का इतिहास आख्यान है । यह ब्राह्मण गंगा के किनारे रहता था और शौचधर्म का पालन करता था। एक दिन उसने सोचा कि गंगा में मनुष्य, कुत्ते, गीदड़ और बिल्ली आदि सभी की विष्ठा बहती है, जिससे गंगा का जल गंदा हो जाता है । इसलिये मनुष्य और पशुओं से रहित किसी अन्य द्वीप में जाकर मुझे रहना चाहिये जिससे मैं शौचधर्म का निर्विघ्न पालन कर सकूँ। इस बात को उस ब्राह्मण ने किसी मल्लाह से कहा और वह मल्लाह उसे अपनी नाव में बैठाकर चल दिया। किसी द्वीप में पहुँच कर ब्राह्मण ने ईख का खेत देखा, और वह वहाँ गन्ने चूसकर अपना समय यापन करने लगा | जब गन्ने चूसते-चूसते उसके दोनों होठ छिल गये तो वह सोचने लगा कि क्या ही अच्छा होता यदि ईख पर भी फल लगा करते जिससे लोगों को गन्ने चूसने की मेहनत न करनी पड़ती। खोज करते-करते उसे एक जगह पुरुष की सूखी हुई विष्ठा दिखाई दी; ईख का फल समझकर वह उसका भक्षण करने लगा। बाद में वणिक् ने उसे समझाया और सद्धर्म का उपदेश दिया।
आगे चलकर शंखराजर्षि और चौर ऋषि की कथायें दी हैं। दुषमाकाल में भी चरित्र की संभावना बताई गई है। स्वप्नाष्टकों का वर्णन है। सर्प और गरुड़ की पूजा, तथा कन्याविक्रय का उल्लेख है। वाक्य, महावाक्यार्थ आदि भेदों का प्रतिपादन है। लोकरूढित्याग का उपदेश है। धर्मरत्न प्राप्ति की योग्यता को उदाहरणपूर्वक समझाया है। विषयाभ्यास में शुक और भावाभ्यास में नरसुन्दर का आख्यान दिया है । शुद्धयोग में दुर्गत नारी तथा शुद्धानुष्ठान में रत्नशिख की कथा दी है।
धर्मोपदेशमाला-विवरण धर्मोपदेशमाला और उसके विवरण के रचयिता कृष्णमुनि के शिष्य जयसिंह सूरि हैं।' धर्मदास गणी की 'उपदेशमाला'
१. पंडित लालचन्द भगवानदास गांधी द्वारा सम्पादित सिंघी जैन ग्रंथमाला में १९४९ में प्रकाशित ।