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आठवाँ अध्याय प्राकृत काव्य-साहित्य ( ईसवी सन् की पहली शताब्दी
से लेकर १८वीं शताब्दी तक) प्राकृत साहित्य में अनेक सरस काव्यों की भी रचना हुई। इस साहित्य का धार्मिक उपदेश अथवा धार्मिक चरितों से कोई संबंध नहीं था, और इसके लेखक मुख्यतया अजैन विद्वान ही हुए | संस्कृत महाकाव्यों की शैली पर ही प्रायः यह साहित्य लिखा गया जिसमें शृङ्गाररस को यथोचित स्थान मिला।
छन्दोबद्ध पद्य से मुक्त मुक्तक काव्य इस युग की विशेषता थी । "इस काव्य में पूर्वापर संबंध की अपेक्षा के बिना एक ही पद्य में पाठक के चित्त को चमत्कृत करने के लिये वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्य की प्रधानता रही है । गीतात्मक होने के कारण इसमें गेय तत्त्व का भी समावेश हुआ। गाथासप्तशती प्राकृत साहित्य का इसी तरह का एक सर्वश्रेष्ठ अनुपम काव्य है।
गाहासत्तसई ( गाहासप्तशती) गाथासप्तशती, जिसे सप्तशतक भी कहा जाता है, शृङ्गाररसप्रधान एक मुक्तक काव्य है जिसमें प्राकृत के सर्वश्रेष्ठ कवि'
१. इनमें रइराअ, मिअंग, हाल, पवरसेण, केसव, गुणाढ्य, अणिरुद्ध, मअरन्द, कुमारिल, चन्दसामि, अवन्तिवम्म, हरिउड्ढ, पोट्टिस, चन्दहस्थि, पालित, वल्लह, माहवसेण, ईसाण, मत्तगइन्द, विसमसेण, भोज, सिरिधम्म, रेवा, गरवाहण, ससिप्पहा, रोहा, दामोअर, मल्लसेण, तिलोअण आदि मुख्य हैं। इनमें हरिउड्ढ और पोटिस का उल्लेख राजशेखर की कर्पूरमंजरी में मिलता है। भोज के सरस्वतीकंठाभरण (१.१३३ ) में भी हरिउड़द का नाम आता है। पालित अथवा पादलिप्त सुप्रसिद्ध जैन आचार्य हैं जिन्होंने तरंगवइकहा की