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वज्जालग्ग
धीर पुरुषों के संबंध मेंबे मग्गा भुवणयले माणिणि ! माणुन्नयाण पुरिसाणं । अहवा पावंति सिरि अहव भमन्ता समप्पंति ॥'
-हे मानिनि ! इस भूमंडल पर मानी पुरुषों के लिये केवल दो ही मार्ग हैं-या तो वे श्री को प्राप्त होते हैं, या फिर भ्रमण करते हुए समाप्त हो जाते हैं। विधि की मुख्यता बताई हैको एत्थ सया सुहिओ कस्स व लच्छी थिराइ पेम्माई। कस्स व न होइ खलणं भण को हुन खंडिओ विहिणा॥
-यहाँ कौन सदा सुखी है ? किसके लक्ष्मी टिकती है ? किसका प्रेम स्थिर रहता है ? किसका स्खलन नहीं होता ? और विधि के द्वारा कौन खंडित नहीं होता ?
दीन के संबंध मेंतिणतूलं पि हु लहुयं दीणं दइवेण निम्मियं भुवणे । वाएण किं न नीयं अप्पाणं पत्थणभएण ॥
-देव ने तृण और तूल (रुई) से भी लघु दीन को सिरजा है, तो फिर उसे वायु क्यों न उड़ा ले गई ? क्योंकि उसे डर था कि दीन उससे भी कुछ माँग न बैठे।
सेवक को लक्ष्य करके कहा हैवरिसिहिसि तुमं जलहर ! भरिहिसि भुवणन्तराइ नीसेसं । तण्हासुसियसरीरे मुयम्मि वप्पीहयकुटुंबे ॥
-हे जलधर ! तुम बरसोगे और समस्त भुवनांतरों को जल से भर दोगे, लेकिन कब ? जब कि चातक का कुटुंब तृष्णा से शोषित होकर परलोक पहुँच जायेगा | १ मिलाइये-कुसुमस्तवकस्येव द्वे वृत्ती तु मनस्विनः। सर्वेषां मूनि वा तिष्ठेत् विशीर्थत वनेऽथवा ॥
हितोपदेश १.१३४।