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५२२ . प्राकृत साहित्य का इतिहास और वादिगोकुलपण्ड के नाम से सन्मानित किये जाते थे ।' उपदेशरत्नाकर विक्रम संवत् १४७६ (ईसवी सन् १३१६ ) से पूर्व की रचना है जो लेखक के स्वोपज्ञविवरण से अलंकृत है। यह ग्रन्थ चार अंशों में समाप्त होता है, इसमें १२ तरंग हैं। अनेक दृष्टान्तों द्वारा यहाँ धर्म का प्ररूपण किया गया है। अनेक आचार्यों, श्रेष्ठियों, और मंत्रियों आदि के संक्षिप्त कथानक विवरण में दिये हैं। इसके अतिरिक्त, महाभारत, महानिशीथ, व्यवहारभाष्य, उत्तराध्ययनवृत्ति, पंचाशक, धनपाल की ऋपभपंचाशिका आदि कितने ही ग्रन्थों के उद्धरण यहाँ दिये गये हैं। रागी, दुष्ट, मूढ, और पूर्वग्रह से युक्त व्यक्ति को उपदेश के अयोग्य बताया है। इसके दृष्टांत भी दिये गये हैं। अर्थी (जिज्ञासु), समर्थ, मध्यस्थ, परीक्षक, धारक, विशेपज्ञ, अप्रमत्त, स्थिर और जितेन्द्रिय व्यक्ति को धर्म का साधक बताया गया है। चषक आदि पक्षियों के दृष्टान्त द्वारा धर्म का उपदेश दिया है। सर्प, आमोपक (चोर ), ठग, वणिक, वन्ध्या गाय, नट, वेणु, सखा, बन्धु, पिता, माता और कल्पतरु इन बारह दृष्टान्तों द्वारा योग्य-अयोग्य गुरु का स्वरूप बताया है। गुरुओं के निंबोली, प्रियालु, नारियल और केले की भाँति चार भेद किये हैं। जैसे जल, फल, छाया और तीर्थ से विरहित पर्वत आश्रित जनों को कष्टप्रद होते हैं, उसी प्रकार श्रुत, चारित्र, उपदेश और अतिशय से रहित गुरु अपने शिव्यों के लिये क्लेशदायी होते हैं। गुरु को कीटक, खद्योत, घटप्रदीप, गृहदीप, गिरिप्रदीप, ग्रह, चन्द्र और सूर्य की उपमा दी है। अक (आख), द्राक्ष, वट और आम्र की उपमा देकर मिथ्याक्रिया, सम्यक्रिया, मिथ्यादानयात्रा और सम्यकदानयात्रा को समझाया है। धर्मों के संबंध में कहा है
१. देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रंथमाला में सन् १९१४ में बंबई से प्रकाशित ।