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जिनदत्ताख्यान आचार्य सर्व देवसूरि के शिष्य थे। इसके सिवाय ग्रंथकर्ता का कोई विशेष परिचय नहीं मिलता | रचना साधारण कोटि की है। यहाँ बहुत सी पहेलियाँ दी हुई हैं। कथा का नायक जिनदत्त चंपानगरी के विमलसेठ की कन्या विमलमति के साथ विवाह करता है। उसे जूआ खेलने का शौक है। जूए में वह अपना सब धन खो देता है, और परदेश-यात्रा के लिये निकल पड़ता है। दधिपुर नगर में पहुँचकर वह अपने कौशल से महाव्याधि से पीड़ित राजकन्या श्रीमती को नीरोग करता है और अन्त में उसके साथ जिनदत्त का विवाह हो जाता है। जिनदत्त श्रीमती के साथ समुद्र-यात्रा करता है। मार्ग में कोई व्यापारी किसी बहाने से जिनदत्त को समुद्र में ढकेल देता है। किसी टूटे हुए जहाज़ का कोई तख्ता उसके हाथ लग जाता है और उसके सहारे तैरकर वह समुद्र के किनारे लग जाता है। रथनूपुरचक्रवाल नगर में राजकन्या अंगारवती से उसका विवाह होता है। एक दिन उसे अपनी पत्नी श्रीमती की याद आती है और वह अंगारवती के साथ विमान में बैठकर दधिपुर की ओर प्रस्थान करता है । मार्ग में चंपा के एक उद्यान में किसी साध्वी के पास बैठकर अभ्यास करती हुई विमलमति और श्रीमती पर उसकी नजर पड़ती है | अपने विमान को वह नीचे उतारता है, और अंगारवती को छोड़कर विद्या के बल से अपना वामन रूप बनाकर वहीं रहने लगता है। यहाँ पर रहते हुए जिनदत्त गीत, वाद्य, विनोद आदि द्वारा चंपा नगरी के निवासियों का मनोरञ्जन करता है। इसी अवसर पर गुप्त रीति से वह विमलमति, श्रीमती
और अंगारवती नामक तीनों पत्नियों का मनोरंजन करता है। यहाँ चंपा की राजकन्या रतिसुंदरी से जिनदत्त का विवाह होता है । अंत में जिनदत्त अपनी पत्रियों के समक्ष अपने वास्तविक
१. यह ग्रंथ सिंघी जैन ग्रंथमाला में सन् १९५३ में जिनदत्ताख्यानद्वय के नाम से प्रकाशित हुआ है । इसमें जिनदत्त के दो आख्यान दिये गये हैं, एक के कर्ता सुमतिसूरि हैं, और दूसरे के अज्ञात हैं।