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श्रीपालकथा
-अप्रमाद से युक्त सावधान व्यक्ति जंगल, जल, अग्नि और दुर्जन जनों से संकीर्ण होने पर भी दाँतों के बीच में रहनेवाली जीभ की भाँति आनन्द को प्राप्त होता है। (३) ते कह न वंदणिज्जा, जे ते ददठूण परकलत्ताई।
धाराय व्व वसहा, वच्चंति महिं पलोयंता ॥ -ऐसे लोग क्यों वंदनीय न हों जो पर-स्त्री को देखकर वर्षा से आहत वृषभों की भाँति नीचे जमीन की ओर मुँह किये चुपचाप चले जाते हैं ? (४) उच्छूगामे वासो सेयं वत्थं सगोरसा साली ।
इट्ठाय जस्स मज्जा पिययम ! किं तस्स रज्जेण ? -हे प्रियतम ! ईखवाले गाँव में वास, सफेद वस्त्रों का धारण, गोरस और शालि का भक्षण तथा इष्ट भार्या जिसके मौजूद है उसे राज्य से क्या प्रयोजन ?
यहाँ अंघिय और नल्लञ्च (?) आदि जूओं के उल्लेख हैं। आडतिग ( यानवाहक, आडतीया-गुजराती), सिम्वलिगा ( सांप की पिटारी), कोसल्लिअ (भेंट) आदि शब्दों का प्रयोग यहाँ देखने में आता है। बौद्ध धर्म के उपासकों को उपासक और जैनधर्म के उपासकों को श्रावक कहा गया है। पूर्वकाल की उक्ति को कथानक और थोड़े दिनों की उक्ति को वृत्तान्त कहा है। केशोत्पाटन और अस्नान आदि क्रियाओं के कारण श्रमणधर्म को अति दुष्कर माना जाता था । 'अन्धे के हाथ की लकड़ी' (अंधलयजहि) का प्रयोग मिलता है।
(2) सिरिवालकहा (श्रीपालकथा) श्रीपालकथा के कर्ता सुलतान फीरोजशाह तुग़लक के समकालीन रनशेखरसूरि हैं। उनके शिष्य हेमचन्द्र ने इस कथा को वि० सं० १४२८ (सन् १३७१) में लिपिबद्ध किया। इसकी भाषाशैली सरल है, और विविध अलंकारों का
१. वाडीलाल जीवाभाई चौकसी द्वारा सन् १९३२ में अहमदाबाद से प्रकाशित।