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४४० प्राकृत साहित्य का इतिहास
(8) निर्वाणलीलावतीकथा निर्वाणलीलावतीकथा जिनेश्वरसूरि की दूसरी कृति है। यह कथाग्रंथ आशापल्ली में संवत् १०८२ और १०६५ (सन् १०२५
और १०३८) के मध्य में प्राकृत पद्य में लिखा गया था। पदलालित्य, श्लेष और अलंकारों से यह विभूषित है। यह अनुपलब्ध है। इस ग्रंथ का संस्कृत श्लोकबद्ध भाषांतर जैसलमेर के भंडार में मिला है। इसमें अनेक संक्षिप्त कथाओं का संग्रह है। ये कथायें जीवों के जन्म-जन्मान्तरों से सम्बन्ध रखती हैं । अन्त में सिंहाराज और रानी लीलावती किसी आचार्य के उपदेश से प्रभावित होकर जैन दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं।
णाणपंचमीकहा ( ज्ञानपंचमीकथा) ज्ञानपंचमीकथा जैन महाराष्ट्री प्राकृत का एक सुन्दर कथाग्रंथ है जिसके कर्ता महेश्वरसूरि हैं। इनका समय ईसवी सन् १०५२ से पूर्व ही माना जाता है। महेश्वरसूरि एक प्रतिभाशाली कवि थे जो संस्कृत और प्राकृत के पण्डित थे। इनकी कथा की वर्णनशैली सरल और भावयुक्त है। उनका कथन है कि अल्प बुद्धिवाले लोग संस्कृत कविता को नहीं समझते, इसलिए सर्वसुलभ प्राकृत-काव्य की रचना की जाती है। गूढार्थ और देशी शब्दों से रहित तथा सुललित पदों से ग्रथित और रम्य प्राकृत काव्य किसके मन को आनन्द प्रदान नहीं करता ?२ ग्रन्थ की भाषा पर अर्धमागधी और कहीं अपभ्रंश का प्रभाव है; गाथाछंद का
१. डाक्टर अमृतलाल गोपाणी द्वारा सिंघी जैन ग्रंथमाला में सन् १९४९ में प्रकाशित । २. सक्कयकव्वस्सत्थं जेण न जाणंति मंदबुद्धीया । सब्वाण वि सुहबोहं तेण इमं पाइयं रइयं ॥ गूढत्थदेसिरहियं सुललियवन्नेहिं गंथियं रम्मं । पाइयकम्वं लोए करस न हिययं सुहावेइ ॥