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४३८ प्राकृत साहित्य का इतिहास भिक्षु को लोक में लज्जित करने की चेष्टा करते हैं, लेकिन भिक्षु के बुद्धिकौशल से उल्टे उन्हें ही हास्यास्पद होना पड़ता है। जयदेवकथानक में जैन और बौद्ध साधुओं के वाद-विवाद की कथा आती है । जयगुप्त नाम के बौद्ध भिक्षु ने एक पत्र लिखकर राजा के सिंहद्वार पर लगा दिया । श्वेताम्बर साधु सुचन्द्रसूरि ने उसे उठाकर फाड़ दिया। तत्पश्चात् राजसभा में दोनों में शास्त्रार्थ हुआ। राजा बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने जैन साधुओं को कारागृह में डाल दिया और जैन उपासकों की सब सम्पत्ति छीन ली। कौशिक वणिक्कथानक में सोमड़ नामक ब्राह्मण (जिसे मजाक में डोडु कहा गया है ) जैन साधुओं का अवर्णवाद करता है जिससे वह देवता-जनित कष्ट का भागी होता है। कमलकथानक में त्रिदंडी साधुओं के भक्त कमल नामक वणिक् की भी यही दशा होती है । धनदेवकथानक में विष्णुदत्त ब्राह्मण द्वारा अपने छात्रों से जैन साधुओं को धूप में खड़े कर के कष्ट देने का उल्लेख है। डोड्ड की भाँति यहाँ वणिकों के लिये किराट शब्द का निर्देश है । धवलकथानक से पता चलता है कि जव जैन साधु विहार-चर्या से थक गये और वर्ष समाप्त होने पर भी अन्यत्र विहार करना उन्हें रुचिकर न हुआ तो उन्हें वसति देनेवाले श्रावकों का मन भी खट्टा हो गया। ऐसी हालत में साधु यदि कभी इधर-उधर विहार करके फिर से उसी वसति में ठहने की इच्छा करते तो श्रावक उन्हें वास-स्थान देने में संकोच करते थे। ऐसे समय साधुओं ने गृहस्थों को चैत्यालय निर्माण करने के लिये प्रेरित किया और इस प्रकार चैत्यों के निर्माण का कार्य शुरू हो गया। साधु लोग प्रायः कंठस्थ सूत्रपाठ द्वारा ही उपदेश देते थे, अभीतक सूत्र पुस्तकबद्ध नहीं हुए थे (न अज्जवि पुत्थगाणि होति त्ति)। प्रद्युम्नराजकथानक में भैरवाचार्य और उसकी तपस्या का उल्लेख है। मुनिचन्द्रसाधुकथानक में गुरुविरोधी साधु मुनिचन्द्र की कथा है जो अपने गुरु के उपदेश को शास्त्रविरोधी बताकर भक्तजनों को श्रद्धा से विमुख करता है। सुन्दरीदत्तकथानक में जोणीपाहुड़ का निर्देश है । यहाँ