________________
४३२ प्राकृत साहित्य का इतिहास निर्वाणलीलावतीकथा आदि मुख्य हैं। कहाणयकोस में ३० गाथायें हैं और इनके ऊपर प्राकृत में टीका है जिसमें ३६ मुख्य और ४-५ अवांतर कथायें हैं। ये कथायें प्रायः प्राचीन जैन ग्रन्थों से ली गई हैं जिन्हें लेखक ने अपनी भाषा में निबद्ध किया है। कुछ कथायें स्वयं जिनेश्वरसूरि की लिखी हुई मालूम होती हैं। जिनपूजा, साधुदान, जैनधर्म में उत्साह आदि का प्रतिपादन करने के लिये ही इन कथाओं की रचना की गई है। इन कथाओं में तत्कालीन समाज, आचार-विचार, राजनीति आदि का सरस वर्णन मिलता है। कथाओं की भाषा सरल और बोधगम्य है, समासपदावली, अनावश्यक शब्दाडंबर और अलंकारों का प्रयोग यहाँ नहीं है। कहीं अपभ्रंश के भी पद्य हैं जिनमें चउप्पदिका (चौपाई) का उल्लेख है। शुकमिथुन, नागदत्त, जिनदत्त, सूरसेन, श्रीमाली और रोरनारी के कथानकों में जिनपूजा का महत्त्व बताया है। नागदत्त के कथानक में गारुडशास्त्र के श्लोकों का उद्धरण देकर सर्प से डसे हुए आदमी को जीवित करने का उल्लेख है। सर्प का विष उतारने के लिये मस्तक को ताड़ित करना, बाई ओर के नथुने में चार अंगुल की डोरी फिराना और नाभि में राख लगाकर उसे उँगली से रगड़ना आदि प्रयोग किये जाते थे। स्त्रियाँ पति के मरने पर अग्नि में जलकर सती हो जाती थीं। जिनदत्त के कथानक में धनुर्वेद का उल्लेख है । यहाँ आलीढ, प्रत्यालीढ, सिंहासन, मंडलावर्त आदि प्रयोगों का निर्देश है। सूरसेन के कथानक में आधी रात के समय श्मशान में अपने मांस को काटकर अथवा कात्यायनी देवी के समक्ष अपने मांस की आहुति देकर देव की आराधना से पुत्रोत्पत्ति होने का उल्लेख है । आयुर्वेद के अनुसार पुत्रलाभ की विधि का निर्देश किया गया है। सिंहकुमार का कथानक कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। यहाँ गंधर्वकला का प्रतिपादन करते हुए तंत्रीसमुत्थ, वेणुसमुत्थ और मनुजसमुत्थ नामक नादों का वर्णन है। नाद