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कथाकोषप्रकरण
४३५ "बहन ! तू बड़ी चालाक मालूम होती है, तू कैसे-कैसे प्रश्न पूछ रही है ? पगली ! पति के अभाव में शय्या तप्त बालू के समान प्रतीत हो रही थी, इसलिये सारी रात इधर-उधर करवट लेते हुए बीती, जिससे मेरे केशों का जूड़ा शिथिल हो गया है। क्या इस प्रकार के प्रश्न पूछ कर तू मेरे श्वशुरकुल के नाश की इच्छा करती है ?"
"छिः छिः स्वामिनि ! ऐसा मत समझो कि इससे तुम्हारे श्वसुरकुल का नाश होगा, इससे तो उसका उत्कर्ष ही
होगा।"
शालिभद्र की कथा जैन साहित्य में सुप्रसिद्ध है। एक बार की बात है, किसी दूर देश से बहुमूल्य कंबलों (रयणकंबल) के व्यापारी राजगृह में आये । व्यापारियों ने अपने कंबल राजा श्रेणिक को दिखाये। लेकिन कंबलों का मूल्य बहुत अधिक था, इसलिये राजा ने उन्हें नहीं खरीदा | रानी चेलना ने कहा, कम से कम एक कंबल तो मेरे लिए ले दो, लेकिन श्रेणिक ने मना कर दिया। उसी नगर में शालिभद्र की विधवा माता भद्रा रहती थी। व्यापारियों ने उसे अपने कंबल दिखाये
और भद्रा ने उनके सब कंबल खरीद लिये। इधर कंबल न मिलने के कारण रानी चेलना रूठ गई। यह देखकर राजा ने उन व्यापारियों को फिर बुलाया। लेकिन उन्होंने कहा कि उन सब कंबलों को भद्रा ने खरीद लिया है। इस पर राजा ने अपने एक कर्मचारी को भद्रा के घर भेजकर अपनी रानी के लिये एक कंबल मंगवाया | भद्रा ने उत्तर में कहलवाया कि कंबल देने में तो कोई बात नहीं, लेकिन मैंने उन्हें फाड़कर अपनी बहुओं के पाँव पोंछने के लिये पायदान बनवा लिये हैं। राजा यह जानकर बड़ा प्रसन्न हुआ कि उसके राज्य में इतने बड़े-बड़े सेठ-साहुकार रहते हैं। एक दिन भद्रा ने राजा श्रेणिक और उसकी रानी चेलना को अपने घर आने का निमंत्रण दिया। राजा के स्वागत के लिये उसने राजमहल के