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कुवलयमाला
अत्थस्स पुण उवाया दिसिगमणं होइ मित्तकरणं च | णरवरसेवा कुसलत्तणं च माणप्पमाणेसुं॥ धातुव्वाओ मंतं च देवयाराहणं च केसिं च । सायरतरणं तह रोहणम्मि खणणं वणिज्जं च | णाणाविहं च कम्मं विज्जासिप्पाइं णेयरूवाइं । अत्थस्स साहयाइं अणिदियाइं च एयाई॥
-दिशागमन, दूसरों से मित्रता करना, राजा की सेवा, मानप्रमाणों में कुशलता, धातुवाद, मंत्र, देवता की आराधना, समुद्रयात्रा, पहाड़ (रोहण) खोदना, वाणिज्य तथा अनेक प्रकार के कर्म, विद्या और शिल्प-ये अर्थोत्पत्ति के निर्दोष साधन हैं। ___ दक्षिणापथ में प्रतिष्ठान (पैठन, महाराष्ट्र में ) नामक नगर का वर्णन है जहाँ धन-धान्य और रन आदि का बनिज-व्यापार होता था। ___ मायादित्य मित्रद्रोह का प्रायश्चित्त करने के लिये अग्नि-प्रवेश करना चाहता है, लेकिन ग्राममहत्तर अग्निप्रवेश करने की अपेक्षा गंगा में स्नान कर अनशनपूर्वक मरने को अधिक उत्तम समझते हैं। उनका कहना है कि अग्नि में तपाने से सोना ही शुद्ध हो सकता है, मित्रद्रोह करनेवाला नहीं; मित्रद्रोह की वंचना कापालिकों का व्रत धारण करने से नहीं होती, उसकी शुद्धि तो गंगा में प्रवेश कर शिवजी के जटाजूट से गिरनेवाली गंगा का धवल और उज्वल जल सिर पर चढ़ाने से ही हो सकती है। निम्नलिखित पद्य में यही भाव प्रकट किया गया है
एत्थ सुज्झति किर सुवण्णं पि । वइसाणर-मुह-गतउं । कउं प्रावु मित्तस्स वंचण | कावालिय-व्रत-धरणे । एउ एउ सुज्झेज्जणहि ॥
तथाधवल-चाहण-धवल-देहस्स सिरे भ्रमिति जा विमल-जला धवलुज्जल सा भडारी । यति गंग प्रावेसि तुहुँ' मित्र-द्रोमु तो णाम सुज्झति।