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समराइञ्चकहा
४११ __ अधम, मध्यम और उत्तम मित्रों का लक्षण बताते हुए शरीर को अधम, स्वजनों को मध्यम और धर्म को उत्तम मित्र कहा है।
एक बार बसन्त ऋतु का आगमन होने पर नगरी के सब लोग उत्सव मनाने के लिये नगर के बाहर गये। राजकुमार समरादित्य ने भी बड़े ठाठ-बाठ से अपने रथ में सवार होकर प्रस्थान किया। नतक (पायमूल) उज्वल वस्त्र धारण कर नृत्य कर रहे थे, भुजंग (विट) उल्लास में मस्त थे, दर्शकगण में चहल-पहल मची हुई थी और कुंकुम की धूलि सब जगह फैल गई थी । जगह-जगह नृत्य हो रहे थे, नाटक दिखाये जा रहे थे और वाद्यों की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। इतने में राजकुमार को मंदिर के चौंतरे पर व्याधि से ग्रस्त एक वीभत्स पुरुष दिखाई दिया। राजकुमार ने सारथि से प्रश्न किया, "सारथि, क्या यह भी कोई नाटक है ?” सारथि ने उत्तर दिया, "महाराज, यह पुरुष व्याधि से पीड़ित है।" यह सुनकर राजकुमार अपनी तलवार निकाल कर व्याधि को मारने के लिये उद्यत हो गया। यह देखकर लोगों के नाच-गान बन्द हो गये और सब लोग इकट्ठे हो गये। इस पर सारथी ने राजकुमार को समझाया कि व्याधि कोई दुष्ट पुरुष नहीं है जिसका वध करके उसे वश में किया जा सके; जो पुरुष धर्मरूपी पथ्य का सेवन करता है वही इस व्याधि से मुक्त हो सकता है। आगे चलकर कुमार ने जरावस्था से पीड़ित एक श्रेष्ठि-दम्पति को देखा। सारथी ने बताया कि धर्मरूपी रसायन का सेवन किये बिना जरावस्था से छुटकारा नहीं मिल सकता। फिर उसने एक मृतक दरिद्र पुरुष को देखा । कुमार ने सारथी से प्रश्न किया, “बन्धु-बांधव मृतक को क्यों छोड़कर चले जाते हैं ?” सारथी ने उत्तर दिया, "इस कलेवर के रखने से क्या लाभ ? इसका जीव निकल गया है।" ___ कुमार-यदि ऐसी बात है तो मृतक के संबंधी क्यों विलाप करते हैं ?