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धूर्ताख्यान
४१३ में पाँच धूर्त-शिरोमणि-मूलश्री,' कंडरीक, एलाषाढ़, शश' और खंडपाणा एकत्रित हुए। उन्होंने निश्चय किया कि सब लोग अपने-अपने अनुभव सुनायें और जो इन अनुभवों पर विश्वास न करे वह सबको भोजन खिलाये, और जो अपने कथन को रामायण, महाभारत और पुराणों से प्रमाणित कर दे, वह धूनों का गुरु माना जाये | सबसे पहले मूलश्री ने अपना अनुभव सुनाया
"एक बार की बात है, युवावस्था में अपने सिर पर गंगा धारण करने के लिये मैं अपने स्वामी के घर गया। अपने हाथ में मैं छत्र और कमंडल लिये जा रहा था कि एक मदोन्मत्त हाथी मेरे पीछे लग गया। हाथी को देखकर मैं डर के मारे कमंडल में जा छिपा | हाथी भी मेरे पीछे-पीछे कमंडल में घुस आया। वह हाथी छह महीने तक कमंडल में मेरे पीछे भागता फिरा । अन्त में मैं कमंडल की टोंटी से बाहर निकल आया। हाथी ने भी उसमें से निकलने का प्रयत्न किया, लेकिन हाथी की पूँछ उसमें फंसी रह गई। रास्ते में गंगा नदी पड़ी। उसे मैं अपनी भुजाओं से पार कर के स्वामी के घर पहुंचा। वहाँ मैं छह महीने तक गंगा को अपने सिर पर धारण किये रहा । उसके बाद उज्जैनी आया, और अब आप लोगों के साथ बैठा हुआ हूँ|
१. मूलश्री को मूलदेव, मूलभद्र, कर्णीसुत और कलांकुर नार्मों से भी उल्लिखित किया गया है। मूलदेव को स्तेयशास्त्रप्रवर्तक माना है। देखिये, जगदीचशन्द्र जैन, कल्पना, जून, १९५६ में 'प्राचीन जैन साहित्य में चौरकर्म' नाम का लेख ।
२. शश का उल्लेख मूलदेव के मित्र के रूप में चतुर्भाणी (डॉ. मोतीचन्द और वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा अनूदित तथा संपादित, हिन्दी ग्रन्थरत्नकारकार्यालय, बंबई, १९६०) में अनेक जगह मिलता है।