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तरंगलोला राज्य करता था । इस नगर में ऋषभसेन नाम का एक नगरसेठ रहता था। उसके घर आठ पुत्रों के पश्चात् मैंने जन्म लिया, तरंगवती मेरा नाम रक्खा गया। आठ वर्ष की अवस्था में मैंने लेख, गणित, रूप, आलेख्य, गीत, वादित्र, नाट्य आदि कलाओं की शिक्षा प्राप्त की । युवावस्था प्राप्त करने पर एक बार वसंत ऋतु में अपने परिवार सहित मैं उपवन में क्रीड़ा करने गई। वहाँ एक चक्रवाक पक्षी को देखकर मुझे जातिस्मरण हो आया, और अपनी सखी सारसिका को मैंने अपने पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाया____ 'चंपा नगरी में चकवी बन कर गंगा के किनारे मैं अपने चकवे के साथ क्रीड़ा किया करती थी। एक दिन वहाँ एक हाथी जल पीने के लिये आया। किसी व्याध ने हाथी का शिकार करने के लिये उस पर बाण छोड़ा। इस समय मेरा चकवा बीच में आ गया और बाण से आहत होकर वहीं गिर पड़ा। व्याध को बहुत पश्चात्ताप हुआ, उसने चकवे का अग्निसंस्कार किया। प्रियतम के वियोग-दुख से पीड़ित हो, मैंने भी अग्नि में जलकर प्राणों को त्याग दिया। अब मैंने तरंगवती का जन्म धारण किया है।'
"उपवन से लौटकर अपने पूर्वजन्म के स्वामी को प्राप्त करने के लिये मैंने आयंबिल किया, तथा काशी के एक सुन्दर वस्त्र पर पूर्वजन्म की घटना का चित्र आलिखित कर कौमुदी महोत्सव के अवसर पर उसे राजमार्ग पर रखवा दिया। इसे देखकर नगर के धनदेव सेठ के पुत्र पद्मदेव को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया । अपनी सखी से अपने पूर्वजन्म के स्वामी के संबंध में समाचार ज्ञात कर मुझे अत्यंत आनंद हुआ। तत्पश्चात् धनदेव के पिता ने अपने पुत्र के लिये मेरी मंगनी की, लेकिन मेरे पिता ने यह संबंध स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि किसी धनिक के घर ही. मैं अपनी कन्या दूंगा। यह सुनकर मैं बड़ी निराश हुई। मैंने भोजपत्र पर एक पत्र लिखकर