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अष्टपाहुड
३०१ -जैसे श्लेष्म में लिपटी हुई मक्खी तत्काल ही मर जाती है, उसी प्रकार परिग्रह से युक्त लोभी, मूढ और अज्ञानी मुनि कायक्लेश का ही भाजन होता है ।
__ अष्टपाहुड कुन्दकुन्द के षट्पाहुड' में दंसणपाहुड, चरित्तपाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड और मोक्खपाहुड नामके छह प्राभृतों का अन्तर्भाव होता है। इन पर आचार्य श्रुतसागर ने टीका लिखी है। श्रुतसागर विद्यानन्दि भट्टारक के शिष्य थे
और वे कलिकालसर्वज्ञ, उभयभाषाचक्रवर्ती आदि पदवियों से विभूषित थे। दंसणपाहुड की टीका में श्रुतसागर आचार्य ने गोपुच्छिक, श्वेतवास, द्राविड, यापनीयक और निप्पिच्छ नामके पाँच जैनाभासों का उल्लेख किया है। सुत्तपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्द ने नग्नत्व को ही मोक्ष का मार्ग बताया है। भावपाहुड में बाहुबलि, मधुपिङ्ग, वशिष्ठ मुनि, द्वीपायन, शिवकुमार, भव्यसेन
और शिवभूति के उदाहरण दिये हैं। आत्महित को यहाँ मुख्य बताया है
उत्थरइ जाण जरओ रोयग्गी जाण डहइ देहउडि ! इंदियबलं न वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥
-जब तक जरावस्था आक्रान्त नहीं करती, रोग रूपी अग्नि देह रूपी कुटिया को नहीं जला देती, और इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हो जाती, तब तक आत्महित करते रहना चाहिये। योगी के सम्बन्ध में मोक्खपाहुड में कहा है
जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजम्मि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥ १. षट्प्राभृतादिसंग्रह पण्डित पन्नालाल सोनी द्वारा सम्पादित होकर माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला में विक्रम संवत् १९७७ में प्रकाशित हुआ है। इसमें षट्प्राभूत के साथ लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, रयणसार और बारह अणुवेक्खा का भी संग्रह है।