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प्राकृत साहित्य का इतिहास
प्रवचनसारोद्धार इसके कर्ता नेमिचन्द्रसूरि हैं जो विक्रम संवत् की लगभग १३वीं शताब्दी में हुए हैं।' इस पर सिद्धसेनसूरि ने टीका लिखी है। इस ग्रंथ में २७६ द्वारों में १५६६ गाथाओं द्वारा जैनधर्मसम्बन्धी अनेक विषयों की चर्चा की गई है। इसे एक प्रकार से जैन विश्वकोष ही कहा जा सकता है। चैत्यवंदन, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, विंशतिस्थान, जिनभगवान् के यक्ष-यक्षिणी-लांछन-वर्ण-आयु-निर्वाण-प्रातिहार्यअतिशय आदि, जिनकल्पी, स्थविरकल्पी, महाव्रतसंख्या, चैत्यपंचक, पुस्तकपंचक, दंडकपंचक, तृणपंचक, चर्मपंचक, दूष्यपंचक, अवग्रहपंचक, परीषह, स्थंडिलभेद, आदि अनेकअनेक विषयों का प्रतिपादन यहाँ किया गया है।
विचारसारप्रकरण इस ग्रंथ के रचयिता देवसूरि के शिष्य प्रद्युम्नसूरि हैं जो लगभग विक्रम संवत् १३२५ (ईसवी सन् १२६८ ) में विद्यमान थे। माणिक्यसागर ने इसकी संस्कृत छाया लिखी है। इस ग्रन्थ में ६०० गाथायें हैं जिनमें कर्मभूमि, अकर्मभूमि, अनार्यदेश, आर्यदेश की राजधानियाँ, तीर्थंकरों के पूर्वभव, उनके माता-पिता, स्वप्न, जन्म, अभिषेक, नक्षत्र, लांछन, वर्ण, समवशरण, गणधर आदि तथा बाईस परीषह, वसति की शुद्धि, पात्रलक्षण, दण्डलक्षण, विनय के भेद, संस्तारकविधि, रात्रिजागरण, अष्टमहाप्रतिहार्य, वीरतप, दस आश्चर्य, कल्कि, नन्द और शकों का काल, विक्रमकाल, दस निह्नव, दिगम्बरोत्पत्तिकाल, चैत्य के प्रकार, ८४ लाख योनि, सिद्धों के भेद आदि विविध विषयों का विस्तार से वर्णन है।
१. देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार द्वारा बंबई से सन् १९२२ और १९२६ में दो भागों में प्रकाशित।
२. आगमोदयसमिति, भावनगर की ओर से सन् १९२३ में प्रकाशित ।