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भाषारहस्यप्रकरण
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भाषारहस्यप्रकरण इसके कर्ता उपाध्याय यशोविजय हैं, इस पर उन्होंने स्वोपज्ञ विवरण लिखा है। इसमें १०१ गाथाएँ हैं जिनमें द्रव्यभाषा
और भावभाषा की चर्चा करते हुए जनपद, सम्मत, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य, व्यवहार, भाव, योग और औपम्य नाम के दस सत्यों का विवेचन है।
(घ) कर्मसिद्धांत जैनधर्म में कर्मग्रन्थों का बहुत महत्व है। श्वेतांबर और दिगम्बर दोनों ही आचार्यों ने कर्मसिद्धांत का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। कर्मसिद्धांतसम्बन्धी साहित्य का यहाँ कुछ परिचय दिया जाता है।
कम्मपयडि ( कर्मप्रकृति) कर्मप्रकृति के लेखक आचार्य शिवशर्म हैं। इसमें ४१५ गाथाओं में बंधन, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, उपशमना, उदय और सत्ता नामक आठ करणों का विवेचन है। इस पर चूर्णी भी लिखी गई है। मलयगिरि और उपाध्याय यशोविजय ने इस पर टीकायें लिखी हैं।
सयग (शतक) शतक शिवशर्म की दूसरी रचना है। इस पर मलयगिरि ने टीका लिखी है।
१. राजनगर (अहमदाबाद) की जैनग्रंथ प्रकाशक सभा की ओर से विक्रम संवत् १९९७ में प्रकाशित ।
२. मुक्ताबाई ज्ञानमंदिर, डभोई द्वारा सन् १९३७ में प्रकाशित । मूल, संस्कृत छाया और गुजराती अनुवाद के साथ माणेकलाल चुन्नीलाल की ओर से सन् १९३८ में प्रकाशित।
३. जैन आत्मानंद सभा भावनगर की ओर से सन् १९४० में प्रकाशित । इसके साथ देवेन्द्रसूरिकृत शतक नाम का पाँचवाँ नव्य कर्मग्रंथ और उसकी स्वोपज्ञ टीका भी प्रकाशित हुई है।