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जैन लेखकों का नूतन दृष्टिकोण ३६३
जैन लेखकों का नूतन दृष्टिकोण मालूम होता है कि इस समय वेद और ब्राह्मणों को प्रमुखता देनेवाली अतिरंजित कल्पनाओं से पूर्ण ब्राह्मणों की पौराणिक कथा-कहानियों से लोगों का मन ऊब रहा था। अतएव कथासाहित्य में एक नये मोड़ की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा था। विमलसूरि वाल्मीकिरामायण के अनेक अंशों को कल्पित और अविश्वसनीय मानते थे और इसलिये जैन रामायण का व्याख्यान करने के लिये पउमचरिय की रचना करने में वे प्रेरित हुए । धूर्ताख्यान में तो ब्राह्मणों की पौराणिक कथाओं पर एक अभिनव शैली में तीव्र व्यंग्य किया गया है। लेकिन प्रश्न था कि त्याग और वैराग्यप्रधान जैनधर्म के उपदेशों को कौनसी प्रभावोत्पादक शैली में प्रस्तुत किया जाय जिससे पाठकगण जैन कथाकारों की ललित वाणी सुनकर उनके आख्यानों की ओर आकर्षित हो सकें। जैन मुनियों को श्रृंगार आदि कथाओं के सुनने और सुनाने का निषेध था, और इधर पाठकों को साधारणतया इसी प्रकार की कथाओं में रस की उपलब्धि होती थी। वसुदेवहिण्डीकार ने इस संबंध में अपने विचार व्यक्त किये हैं
सोऊण लोइयाणं णरवाहनदत्तादीणं कहाओ कामियाओ लोगो एगंतेण कामकहासु रज्जति । सोग्गइपहदेसियं पुण धम्म सोउं पि नेच्छति य जरपित्तवसकडुयमुहो इव गुलसकरखंडमच्छंडियाइसु विपरीतपरिणामो | धम्मत्थकामकलियाणि य सुहाणि धम्मत्थकामाण य मूलं धम्मो, तम्मि य मंदतरो जणो, तं जह
१. प्रबंधचिंतामणिकार ने इस ओर इंगित किया है
भृशं श्रुतत्वान्न कथाः पुराणाः
प्रीणति चेतांसि तथा बुधानाम् ॥ -पौराणिक कथाओं के बार-बार श्रवण करने से पंडित जनों को चित्त प्रसन्न नहीं होता।