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प्राकृत साहित्य का इतिहास तिलोयपण्णत्ति में मिलता है, दोनों की बहुत सी गाथायें भी समान हैं। बट्टकेर के मूलाचार और नेमिचन्द्र के त्रिलोकसार की गाथायें भी जम्बुद्दीवपण्णत्ति में पाई जाती हैं। इस ग्रंथ में २३८६ गाथायें हैं जो उपोद्धात, भरत-ऐरावत वर्ष, शैल-नदी भोगभूमि, सुदर्शन (मेरु), मन्दरजिनभवन, देवोत्तरकुरु, कक्षाविजय, पूर्व विदेह, अपरविदेह, लवणसमुद्र, द्वीपसागर, अधःऊर्ध्वसिद्धलोक, ज्योतिर्लोक और प्रमाणपरिच्छेद नामक तेरह उद्देशों में विभाजित हैं । यहाँ महावीर के बाद की आचार्यपरम्परा दी है। पहले गौतम, लोहार्य (जिन्हें सुधर्मा भी कहा गया है), और जम्बूस्वामी नाम के तीन गणधर हुए; फिर नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु नाम के चौदह पूर्व और बारह अंग के धारक मुनि हुए। इसके बाद विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन-ये दस पूर्वधारी हुए। फिर नक्षत्र, यशःपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस ये पाँच ग्यारह अंगों के धारी हुए। इनके पश्चात् सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोह (लोहाचार्य ) आचारांगसूत्र के धारक हुए।
धम्मरसायण धम्मरसायण' नाम का पद्मनन्दि का एक और ग्रंथ है। इसमें १६३ गाथाओं में धर्म का प्रतिपादन किया है।
नयचक्र नयचक्र को लघु नयचक्र नाम से भी कहा जाता है। इसके कर्ता देवसेनसूरि हैं जो ईसवी सन् की दसवीं शताब्दी के विद्वान् हैं। नयचक्र में ८७ गाथाओं में नयों का स्वरूप बताय
१. यह सिद्धांतसार, कलाणालोयणा आदि के साथ सिद्धांतसारादिसंग्रह में माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बंबई से वि० सं० १९७९ में प्रकाशित हुआ है।