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दर्शनसार आत्मध्यान की मुख्यता का प्रतिपादन करते हुए कहा हैलहइ ण भव्वो मोक्खं जावइ परदव्ववावडो चित्तो। उग्गतवं पि कुणंतो सुद्धे भावे लहुं लहइ ॥
-जब तक पर-द्रव्य में चित्त लगा हुआ है तब तक भव्य पुरुष मोक्ष प्राप्त नहीं करता; उग्र तप करता हुआ वह शीघ्र ही शुद्ध भाव को प्राप्त होता है।
दर्शनसार दर्शनसार' में पूर्वाचार्यकृत ५१ गाथाओं का संग्रह है। देवसेनसूरि ने धारानगरी के पार्श्वनाथ के मन्दिर में विक्रम संवत् ६६० (ईसवी सन् ६३३) में इसकी रचना की । यह रचना बहुत अधिक प्रामाणिक नहीं मानी जाती । इसमें बौद्ध, श्वेताम्बर आदि मतों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। ऋषभदेव के मिथ्यात्वी पौत्र मरीचि को समस्त मत-प्रवर्तकों का अग्रणी बताया है । पार्श्वनाथ के तीर्थ में पिहिताश्रव के शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि को बौद्धधर्म का प्रवर्तक कहा है। उसके मत में मांस और मद्य के भक्षण में दोष नहीं है। राजा विक्रमादित्य की मृत्यु के १३६ वर्षे बाद सौराष्ट्र के अन्तर्गत वलभी नगर में श्वतांबर संघ की उत्पत्ति बताई गई है। भद्रबाहुगणि के शिष्य
१. पंडित नाथूराम प्रेमी द्वारा संपादित और जैन ग्रंथ रत्नाकरकार्यालय, बंबई द्वारा वि० सं० १९७४ में प्रकाशित।
२. माथुरसंघ के सुप्रसिद्ध आचार्य अमितगति ने अपनी धर्मपरीक्षा (६) में बौद्धदर्शन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लिखा है
रुष्टः श्रीवीरनाथस्य तपस्वी भौडिलायनः ।
शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥ -पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा में मौडिलायन (मौद्गल्यायन) नामक तपस्वी ने महावीर से रुष्ट होकर बौद्धदर्शन चलाया।
३. श्वेताम्बरों के अनुसार बोडिय (दिगम्बर) मत की उत्पत्ति का समय भी लगभग यही है, देखिये नाथूराम प्रेमी, दर्शनसारविवेचना, पृष्ठ २८ ।