________________
भगवती आराधना
३०५ समय-समय पर अनेक प्राकृत और संस्कृत टीकायें लिखी गई हैं । अपराजित सूरि-जो श्रीविजयाचार्य भी कहे जाते थे-ने भगवतीआराधना पर विजयोदया अथवा आराधना टीका लिखी है। दशवकालिक सूत्र पर भी इनकी विजयोदया नाम की टीका थी। अपराजितसूरि का समय ईसवी सन् की सातवीं शताब्दी के बाद माना गया है। दूसरी टीका सुप्रसिद्ध पंडित आशाधर जी ने लिखी है जिसका नाम मूलाराधनादर्पण है।' आशाधरजी का समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी है । तीसरी टीका का नाम आराधनापंजिका है। इसकी हस्तलिखित प्रति भांडारकर इंस्टिट्यूट, पूना में है। इसके लेखक का नाम अज्ञात है। चौथी टीका भावार्थदीपिका है; यह भी अप्रकाशित है | माथुरसंघीय अमितगति ने भगवतीआराधना का संस्कृत पद्यों में अनुवाद किया है। पंडित सदासुख जी काशलीवाल ने इस पर भाषावचनिका लिखी है।
ग्रंथ के आरम्भ में १७ प्रकार के मरण बताये हैं, इनमें पंडितपंडितमरण, पंडितमरण और बालपंडितमरण को श्रेष्ठ कहा है। पंडितमरण में भक्तप्रतिज्ञामरण को प्रशस्त बताया है। लिंग अधिकार में आचेलक्य, लोच, देह के ममत्व का त्याग और प्रतिलेखन (मयूरपिच्छीका धारण करना ) ये चार निग्रंथलिंग के चिह्न है । केश रखने के दोषों का प्रतिपादन करते हुए लोच को ही श्रेष्ठ बताया है । अनियतविहार अधिकार में नाना देशों में विहार करने के गुण प्रतिपादन करते हुए नाना देशों के रीतिरिवाज, भाषा और शास्त्र आदि में कुशलता प्राप्त करने का विधान है । भावना अधिकार में तपोभावना, श्रुतभावना, सत्यभावना, एकत्वभावना और धृतिबलभावना का प्ररूपण है। सल्लेखना
१. पण्डित आशाधर ने अपनी टीका (पृष्ठ ६४३ ) में भगवतीआराधना की एक प्राकृत टीका का उल्लेख किया है।
२. भगवतीभाराधना की अन्य टीकाओं के लिये देखिये नाथूरामप्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ ८३ आदि ।
२० प्रा०सा०