________________
भगवती आराधना
३०७ प्रणिधि (दशवकालिक का आठवाँ अध्ययन) आचारांग, सूत्रकृतांग, निशीथ, बृहत्कल्पसूत्र और उत्तराध्ययन नामक प्राचीन आगमों के उद्धरण दिये हैं। आगम, आज्ञा, श्रुत, धारणा
और जित यह पाँच प्रकार का व्यवहार बताया है, इसका विस्तार सूत्रों में निर्दिष्ट है। व्यवहारसूत्र की मुख्यता बताई गई है । चौदह पूर्व और द्वादशांग के पदों की संख्या का प्ररूपण है । आलोचना अधिकार में आलोचना के गुण-दोषों का विवेचन है । अनुशिष्टि अधिकार में पञ्चनमस्कार मन्त्र का माहात्म्य है। अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का प्ररूपण है।
आभ्यंतर शुद्धि पर जोर देते हुए कहा हैघोडयलहिसमाणस्स तस्स अब्भंतरंमि कुधिदस्स । बाहिरकरणं किं से काहिदि वगणिहुदकरणस्स ॥
-जैसे घोड़े की लीद बाहर से चिकनी दिखाई देती है लेकिन अन्दर से दुर्गन्ध के कारण वह महा मलिन है, उसी प्रकार मुनि यदि ऊपर-ऊपर से नग्नता आदि केवल बाह्य शुद्धि ही धारण करता है तो उसका आचरण बगुले की भाँति समझना चाहिये। ___ अशिव और दुर्भिक्ष उपस्थित होने पर, भयानक वन में पहुँच जाने पर, गाढ़ भय उपस्थित होने पर और रोग से अभिभूत होने पर भी कुलीन मान को नहीं छोड़ते; वे सुरा का पान नहीं करते, मांस का भक्षण नहीं करते, प्याज नहीं खाते, तथा कुकर्म और निर्लज कर्म से दूर रहते हैं। ध्यान अधिकार में चार प्रकार के ध्यान, लेश्या अधिकार में छः लेश्याएँ और भावना अधिकार में १२ भावनाओं का प्ररूपण है। यहाँ सुकोसल, गजसुकुमार, अनिकापुत्र, भद्रबाहु, धर्मघोष, अभयघोष, विधुच्चर, चिलातपुत्र आदि अनेक अनेक मुनियों और साधुओं की परंपरागत कथायें वर्णित हैं जिन्होंने उपसर्ग सहन कर सिद्धि प्राप्त की। विजहन नाम के चालीसवें अधिकार में मुनि के मृतक-संस्कार का वर्णन है। यहाँ किसी क्षपक की मृत्यु हो जाने पर उसके शव को