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३०६ प्राकृत साहित्य का इतिहास अधिकार में सल्लेखना का निरूपण करते हुए बाह्य और अन्तर तपों का प्रतिपादन है। साधुओं के रहने योग्य वसति के लक्षण बताये हैं। भोजन की शुद्धता का विस्तार से वर्णन है; यहाँ उद्गम, उत्पादन आदि आठ दोपों के निवारण का विधान है। कषायों के त्याग का उपदेश है। अनुविशिष्ट शिक्षा अधिकार में वैयावृत्य का उपदेश दिया है। आर्यिका की संगति से दूर रहने का उपदेश है
जदि वि सयं थिरबुद्धी, तहावि संसग्गलद्धपसरो य । अग्गिसमीवेव घदं, विलेज चित्तं खु अजाए। -यदि (मुनि की) बुद्धि स्थिर हो तो भी जैसे घी को अग्नि के पास रखने से वह पिघल जाता है, वैसे ही मुनि और आयों का मन चंचल हो उठता है। ऐसी दशा में क्या होता है
खेलपडिदमप्पणं ण तरदि जह मच्छिया विमोचेढुं । अज्जाणुचरो ण तरदि, तह अप्पणं विमोचेढुं॥ -जैसे श्लेष्म में पड़ी हुई मक्खी अपने आपको छुड़ाने में असमर्थ है, वैसे ही आर्याओं का अनुचर बना हुआ साधु अपने आपको छुड़ाने में असमर्थ हो जाता है। पार्श्वस्थ साधुओं की सङ्गति को वयं कहा है
दुज्जणसंग्गीए संकिज्जदि संजदो वि दोसेण | पाणागारे दुद्धं, पियंतओ बंभणो चेव ॥ -दुर्जन की संगति के कारण संयमी में भी दोष की शंका की जाने लगती है। जैसे मदिरालय में दूध का पान करते हुए ब्राह्मण को शंका की दृष्टि से देखा जाता है ।
मार्गणा अधिकार में आयार, जीत और कल्प का उल्लेख है । सुस्थित अधिकार में आचेलक्य, अनौदेशिक आदि दस प्रकार का श्रमणकल्प (श्रमणों का आचार) कहा है। आचेलक्य का समर्थन करते हुए यहाँ टीकाकार अपराजितसूरि ने आचार