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प्राकृत साहित्य का इतिहास शास्त्र के अध्ययन का खूब उपयोग किया है ।' (चौथी पुस्तक की प्रस्तावना में इस संबंध में प्रोफेसर डाक्टर अवधेशनारायण सिंह का एक महत्त्वपूर्ण लेख भी छपा है)। __षट्खंडागम की चौथी पुस्तक जीवस्थान के अन्तर्गत क्षेत्रस्पर्शन-कालानुगम नाम से कही गई है जिसमें क्रम से १२, १८५
और ३४२ सूत्र हैं ; जीवस्थान के नाम के प्रथम खंड का यह तीसरा, चौथा और पाँचवाँ भाग है। यहाँ जीवस्थानों की क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम और कालानुगम नाम की तीन प्ररूपणाओं का विवेचन है। क्षेत्रानुगम में लोकाकाश का स्वरूप और प्रमाण बताया है। एक मत के अनुसार यह अपने तलभाग में सात राजू व्यासवाला गोलाकार है। इस मत के अनुसार लोक का आकार ठीक अधोभाग में वेत्रासन, मध्य में झल्लरी और ऊर्ध्वभाग में मृदंग के समान हो जाता है। लेकिन वीरसेन आचार्य इस मत को प्रमाण नहीं मानते। उन्होंने लोक का आकार पूर्व-पश्चिम दिशाओं में ऊपर की ओर घटता-बढ़ता हुआ, किन्तु उत्तर-दक्षिण दिशाओं में सर्वत्र सात राजू ही स्वीकार किया है। इस प्रकार उनके मतानुसार यह लोक गोलाकार न होकर समचतुरस्राकार हो जाता है, और दो दिशाओं में उसका आकार वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के समान दिखाई देता है। इसी . प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र के बाह्य पृथ्वी के अस्तित्व को सिद्ध करने की भी धवलाकार की अपनी निजी कल्पना है।
षटखंडागम की पाँचवीं पुस्तक में जीवस्थान के अन्तर्गत
१. धवलाकार ने परियम्मसुत्त (परिकर्मसूत्र ) नाम के प्राकृत गद्यात्मक गणितसम्बन्धी ग्रंथ के अनेक अवतरण अपनी टीका में दिये हैं। जैन करणानुयोग का यह कोई प्राचीन ग्रंथ था जो आजकल उपलब्ध नहीं है। देखिये डॉक्टर हीरालाल जैन का जैन सिद्धान्त भास्कर (भाग ८, किरण २) में 'आठवीं शताब्दी से पूर्ववर्ती गणितसम्बन्धी संस्कृत व प्राकृत ग्रंथों की खोज' नामक लेख ।