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कसायपाहुड
२९१ कर्ता आचार्य गुणधर हैं, जिनका समय ईसवी सन की दूसरीतीसरी शताब्दी माना जाता है । गुणधर आचार्य ने कषायप्राभृत की रचना करके आचार्य नागहस्ती और आर्यमंक्षु को उसका व्याख्यान किया। उनके समीप इस ग्रन्थ का अध्ययन कर आचार्य यतिवृषभ ने ईसवी सन की लगभग छठी शताब्दी में इस पर छह हजार श्लोकप्रमाण चूर्णी-सूत्रों की प्राकृत में रचना की । तत्पश्चात् आचार्य यतिवृषभ से चूर्णी-सूत्रों का अध्ययन कर उच्चारणाचार्य ने उन पर बारह हजार श्लोकप्रमाण उच्चारणसूत्रों की रचना की। उच्चारणाचार्य की यह टीका आजकल उपलब्ध नहीं है । मूल गाथा-सूत्रों और यतिवृषभ के चूर्णीसूत्रों को लेकर आचार्य वीरसेन ने सन् ८७४ में अपनी जयधवला टीका लिखी जिसे राष्ट्रकूट के राजा अमोघवर्ष के गुरु जिनसेन आचार्य ने समाप्त किया। ___ कषायप्राभृत १५ अधिकारों में विभाजित है। पहला अधिकार पेजदोषविभक्ति है। अगले चौदह अधिकारों के नाम हैं-स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति-झीणाझीणस्थित्यन्तिक, बंधक, वेदक, उपयोग, चतुःस्थान, व्यञ्जन, दर्शनमोहोपशामना, दर्शनमोहक्षपणा, संयमासंयमलब्धि, संयमलब्धि, चारित्रमोहोपशामना, चारित्रमोहक्षपणा | इनमें प्रारम्भ के आठ अधिकारों में संसार के कारणभूत मोहनीयकर्म की, और अन्तिम सात अधिकारों में आत्मपरिणामों के विकास से शिथिल होते हुए मोहनीय कर्म की विविध दशाओं का वर्णन है। ___ कसायपाहुड़ की पहली पुस्तक में पेजदोषविभक्ति नाम के
१. यह ग्रंथ भारत दिगम्बर जैनसंघग्रंथमाला से सन् १९४४ से १९५६ तक अभी तक पाँच पुस्तकों में प्रकाशित हुआ है। इसमें गुणधराचार्य के गाथा-सूत्र, यतिवृषभ के चूर्णीसूत्र और वीरसेन की टीका गर्मित है। कसायपाहुडसुत्त यतिवृषभ के चूर्णीसूत्रों सहित वीरशासनसंघ, कलकत्ता से सन् १९५५ में पण्डित हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ है।